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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५२५ । अर्थ:--'घूमना, जाना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'ऋ' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'धुन' ऐसे धातु-रूप की आदेश-प्रामि होती है। जैसे:-व्रजति = वुबइवह जाता है-बद्द घूमता है मथवा वह गमन करता है । जित्वा-बुरे प्पि और वुन पिणु =जाकर के, घूम करके प्रथा गमन करके॥४-३६२॥ दृशेः प्रस्सः ॥ ४-३६३ ।। अपभ्रंशे दृशे र्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति ॥ प्रस्सदि । अर्थ:---संस्कृत-भाषा में देखना' अर्थ में उपलब्ध पातु श - पश्य' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'प्रस्स' ऐसे धातु-रूप को नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जेसे:-पश्यति = प्रसिदि वह देखता है। ॥ ४-३६३ ।। ___ ग्रहे गुण्हः ॥ ४-३६४ ॥ अपभ्रंशे ग्रहे र्धातो गुण्ह इत्यादेशो भवति ॥ पद गृण्हेप्पिणु वतु ॥ अर्थ:-संस्कृत-भाषा में 'ग्रहण करना-लेना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'ग्रह.' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'गृण्ड' ऐसे धातु-रूप की पादेश प्राप्ति होती है। जैसे:--(१) गृहाति = गृहइ-वह ग्रहण करता है-वह क्षेता है । (२) पट गृहीत्वा व्रतम्-पढ गृण्हेपिणु ऋतु व्रत-नियम को ग्रहम करक-गीकार करकेन्पढ़ो-अध्ययन करो ॥ ४-३६४ ।। तयादीनां छोल्लादयः ॥४-३६५ ॥ अपभ्रंशे तक्षि-प्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय प्रादेशा भवन्ति ॥ जिव तिव॑ तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोलिज्जन्तु ॥ तो जह गोरिहे मुइ-कमलि सरि सिम काबि लहन्तु ।। १ ॥ श्रादि ग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलम्यन्ते ते उदाहार्याः ।। चूहनउ चुण्णी होइ सइ मुद्धि ! कबोलि निहित्तउ ।। सासानल-जाल-झलकिपर, वाह-सलिल-संसित्तउ ॥ २॥ अभड चिउ बे पपई पेम्मु निश्चइ जाये ॥ सन्यासण-रिउ-संमत्रहो, कर परिअत्ता तायें ॥ ३ ॥ हिमा खुडुका गोरडी गयणि घुडुकइ मेहु ।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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