SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ca] *प्राकृत व्याकरमा .000000000000000000000000oresentiretroverstoordaroromansootdoor... भर्तृ-विहितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तार विहिश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; 2-2 से 'त' को द्वित्व त की प्राप्ति; ३-४५ से 'ऋ' के स्थान पर 'बार' आदेश की प्राप्ति १-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसक विकृत: प्रत्यय 'सि' पान र माकृत में म' प्रत्यय की पाप्ति और १-२३ से 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भत्तारविहिभं रूप सिद्ध हो जाता है । 1॥३४५ ॥ मा अरा मातुः ॥ ३-४६ ।। मात् संवन्धिन ऋतः स्यादौ परे ा अरा इत्यादेशी मवतः ।। मात्रा । मारा। माप्राउ | मामाश्रो । माअराउ । मारामा । माझं । मारं इत्यादि | बाहुलकाज्जनन्यर्थस्य आ देवतार्थस्य तु अरा इत्यादेशः । मात्राए कुच्छीए । नमो मारास ।। मातुरिदवा [१-१३५] इतीचे माईण इति भवति || ऋतामुद [३.४४] इत्यादिना उश्वे तु माउए समम्निमें वन्दे इति । स्यादावित्येव । माइ देयो । माइ-गयो ।। अर्थ:-'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर आगे विभक्ति-बोधक 'सि', 'अम आदि प्रत्ययों के रहने पर 'श्री' और 'अरा' ऐसे दो आदेशों का प्राप्ति यथाकम से होती है। जैसेःमातामात्रा अथवा मारा । मातरः मात्राउ और मात्राश्री अथवा माअराउ अथवा माअगोन माताएं । मातरम् मा अथवा माअरं अर्थात माता को। 'मातृ' शब्द दो अर्थों में मुख्यत: व्यवहृत होता है:-(१) जननी अर्थ में और (२) देवता के स्त्रोलिंग रूप देवी अर्थ में; तदनुमार जहाँ 'मात' शब्द का अर्थ 'जननी होगा वहाँ पर प्राक्स-रूपान्तर में अन्स्य '' के स्थान पर 'पा' आरश की प्राप्ति होगी; एवं जहाँ 'मार' शब्द का अर्थ देवी होगा; वहां पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति होगी। जैसे:-मातुः कुतः-मापार कुच्छा! अर्थात् माता के पेट से । नमो मातभ्यः=नमो माअराण अर्थात देवी रूप माताओं के लिये नमस्कार हो । प्रथम उदाहरण में "मातृ जननी" अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आवेश किया गया है। जब कि द्वितीय-उदाहरण में 'मात-वी' अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश किया गया है; यों 'आ' और 'धरा' आदेश-प्राप्ति में रहस्य रहा हुश्रा है उसे ध्यान में रखना चाहिये । सूत्र-संख्या १-१३५ में कहा गया है कि-जब 'मान' शम्न गौण रूप से समास-अवस्था में रहा हुआ हो तो उस 'भात' शरण में स्थित अन्त्य ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति होती है । तदनुसार यहां पर दृष्टान्त दिया जाता है कि- 'मातभ्यः माईण' अर्थात् माताओं के लिये; इस प्रकार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी होती है । इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-४४ में विघोषित किया गया है कि
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy