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________________ ↑ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्थापनशे कीसु इत्यादेशो वा भवति ।। सन्ता भोग जु परिहरह, वसु कन्तहो बलि कीसु । तसु दवे विमुण्डियउं, जसु खल्लि हडउं सीसु ॥ १ ॥ पते । साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृत शब्दादेष प्रयोगः । बलि किन्न सुभमस्तु ॥ अर्थ:- संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'क्रिये' क्रियापद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'किंतु ऐसे कियत को अहोती है।कल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'फिट' ऐसे पद रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- क्रिये कीसु अथवा किन उंमैं करता हूँ मैं करती हूँ । साभ्यमान भवस्था में 'क्रिय' का रूप 'किडज' होगा | जिसकी सिद्धि इस प्रकार से की जायगी: - 'क्रिय' में स्थित 'र्' का सूत्र सख्या २०७१ से लो और १-२४८ से 'य' के स्थान पर द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होकर 'क्रिय' के स्थान पर 'किज्ज' रूप की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। 'कोसु' क्रियापद को समझने के लिये जो गाथा दी गई है, उसका अनुवाद य है संस्कृत: - सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये || तस्य देवेनैव मुण्डितं यस्य खच्वाटं शीर्षम् ॥ १ ॥ ナ [ ५३ ] हिन्दी: मैं अपनी श्रद्धांजलि उस प्रिय व्यक्ति के लिये समर्पित करता हूँ; जो कि भोग-सामग्री कं उपस्थित होने पर - विद्यमान होने पर उसका त्याग करता है। किन्तु जिसके पास भोग सामग्री है ही नहीं, फिर भी जो कहता है कि 'मैं भोर्गा को छोड़ता हूँ ।' ऐसा व्यक्ति तो उस व्यक्ति के समान है, जिसका सिर गञ्जा है और भाग्य ने जिसको पहिले से ही 'केश बिहन' कर दिया है अर्थात जिसका मुण्डन पहिले ही कर दिया गया है ॥ १ ॥ 'की' के वैकल्पिक रूप फिउज' का उदाहरण यो है: - बलिं करोमि सुजनस्य = बलि किन सुष्मणस्सु-मैं सज्जन पुरुष के लिये बलिदान करता हूँ । ( सूत्र संख्या ४-३३८ में यह गाथा पूरी दी गई ३ ) ॥ ४-३८६ ।। भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ॥ ४-३६० ॥ अपभ्रंशे वो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति ॥ सुगत्तषु जं थगई सोच्छेयउ नहु लाहु ॥ सहि ! जह के तुखि-बसेण, अहरि पहुच्चर, नाहु ॥ १ ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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