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________________ * प्राकृत व्याकरण * SG9OJE 'a' saara और करााज्जिड़ तीनों रूपों की सिद्धि सुत्र संख्या ३-१५२ में की गई है । 1000064 [ २७५ ] संग्रामयति संस्कृत का णिजन्त रूप हैं। इसका प्राकृत रूप संगामेह होता है। इसमें सूत्र संख्या和の色 'मूल संस्कृत धातु संमाम् में स्थित 'र' व्यञ्जनका लोपः २३ १५३ की वृत्ति से प्राप्तांग 'संगाम यदि रूप से स्थित अनुस्वार सहित 'अ' के स्थान पर लागे णिजन्त-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने परमो 'आ' की प्राप्ति का अभाव ३-६४६ से प्राप्तांग 'सगाम्' में खिजन्त बोधक प्रत्यय 'एए' की प्राप्ति और ३-१३६ से रिजन्त र्थक रूप से प्राप्तांग 'संगामे में वतमानकाल के प्रथम पुरुष एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत किया पद का रूप 'संगामेड' सिद्ध हो जाता है । 'कार' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-१५२ में की गई है। पति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप हैं। इसका प्राकृत रूप दूसेह होता है। इसमें सूत्र संख्या९-२६० से मूल संस्कृत धातु 'दू षू' में स्थित मूर्धन्य 'प' के स्थान पर दन्स्य स्' की प्राप्ति; ३ - ९४६ से प्राप्तांग 'दूस' में णिजन्त अर्थक प्रत्यय 'एत=ए' की प्राप्ति और ३-१३६ से जिन्त अर्थक रूप से प्राप्लांग 'में' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप दूसेइ मित्र हो जाता है । फारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप करावे (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु कृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'घर' की प्राप्ति; ३ - १५.३ की वृति से प्राप्तांग 'कर' में स्थित आदि 'अ' के आगे जिन्न बोधक प्रत्यय 'आवे' का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति ३-१४६ से प्राप्तांग 'कार' में पिजन्त-बोधक प्रस्थय 'आवे' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ में आगे आये हुए प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर द आकार की प्राप्ति के साथ खिजन्त- अर्थ - श्रंग 'कारावे' को प्राप्ति और ३-१३६ से बिजन्त- अर्थकरूप से प्राप्तांग 'कारावे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य पश्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यक्ष की प्राप्ति होकर प्राकृतीय प्रेरणार्थक वर्तमान-कालीन क्रियापद का रूप कारा सिद्ध हो जाता है । हातिः संस्कृत का भूत दन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हासाविओ (किया गया है। इसमें सूत्र संख्या ३-१५३ को वृद्धि से मूल प्राकृत धातु 'हम' में स्थित आदि 'आकार' के आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आाचि' का सद्भाव होने के कारण से 'आकार' की प्राप्तिः ३-१५२ से प्राप्तांग 'हाल' में आगे भूतकृदन्ती प्रायका सद्भाव होने के कारण से प्रेरणार्थक भाव निर्माण में सूत्र संख्या ३-१४० के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'अ एल्. आज और आवे' के स्थान पर 'माथि' प्रत्यय की प्राप्ति ४४४८ से
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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