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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * हिन्दी: -- जिन व्यक्तियों द्वारा एक बार शील-श्रत का खंडन किया गया है, उनके लिये प्रायश्वित रूप दंड का दिया जाना ओक है; परन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन शील-व्रत का खण्डन करता है; उनके लिये प्रायश्चित रूप दंड का विधान करने से क्या लाभ है ? वह तो पूर्ण पापो ही है। यहाँ पर 'एकशः' के स्थान पर 'एकसि' शब्द रूप का प्रयोग किया गया है ।। ४-४२८ । अ- डड - डुल्लाः स्त्राधिक- क - लुक्च ॥ ४-४२६ ॥ अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे थ, डड डुल्ल, इत्येते त्रयः प्रत्ययाः भवन्तिः तत्सनियोगे स्वार्थी के प्रत्ययस्य लोपश्च ।। विरहानल - जाल - करालि उ पहिउ पन्थि जं दिउ || तं मे सपथअहिंसां जि किअउ अग्निडउ || उड | महु कन्तदो वे दोसडा || डुल्ल । एक कुडुल्ली पवहिं रुद्धी ॥ [ ५७१ ] ********* अर्थः - संस्त भाषा में लब्धसंज्ञा शब्दों का रूगन्तर अपभ्रंश भाषा में करने पर उनमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में तीन प्रत्यवों की प्राप्ति हुआ करती है। जोकि कम से इस प्रकार हैं:(1) अ, (२) डड और (३) डुल्ल । इन प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर संस्कृत शब्दों में रहे हुए स्वार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही इन 'श्र अथवा डढ अथवा डुल्ल' प्रत्ययों को [सं-प्राप्ति संज्ञा शब्दों में हो सकती हैं। 'बढ और बुल्ल प्रत्ययों में अवस्थित आदि 'ढकार' इत्संज्ञक है, तदनुवार संज्ञा शब्दों में इनकी संयोजना करने के पूर्व संज्ञा शब्दों में अवस्थित अन्त्य स्वर का लोप हो जाता है और बाद में रहे हुए हलन्त संज्ञा शब्दों में इन 'हब' और 'जुल्ल= उल्ल' प्रत्यय का संयोग किया जाता है । यों स्त्रार्थिक प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को जोड़ देने के अनन्तर प्राप्त संज्ञा शब्द के रूप में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संघटना की जाती है। जैसे: = (१) भव दोषी भव-दोसड़ा = जन्म-मरण रूप संसार-दोषों को । यहाँ पर 'दोष' शब्द में अड' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। = (२) जीवित्त कं = जोवियत्र जिन्दा रहना प्राण धारण करना। यहाँ पर संस्कृतीय स्थार्थिक प्रत्यय 'क' का लोप होकर अपभ्रंश भाषा में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। (३) काय- कुटी = काय- कुडुली = शरीर रूपी झोंपडी। इसमें 'डुल्ल = उल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है । यह 'कुटी' शब्द श्रीलिंग वाचक होने से प्राप्त प्रस्थय 'डुल्ल = उल्ज़ में स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'ई' की प्राप्ति सूत्र संख्या ४-४३९ से हुई है। वृत्ति में दिये गये उदाहरणों का अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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