SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [५७० * प्राकृत व्याकाण* 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000+woonहै। जैसे:-अवश्यम् = अवसें और अवस = अवश्य-जरुर-निश्चय । उदाहरण के रूप में प्रदत्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत:--जिहवेन्द्रियं नायकं वशे कुरुत, यस्य भधीनानि अन्यानि ॥ मूले विनष्टे तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ॥१॥ हिन्दी:-जिसके अधीन अन्य सभी इन्द्रियों रही हुई हैं ऐसी नायक-नेता-रूप-जिला-इन्द्रिय को अपने वश में करी; (क्योंकि इस को वश में करने पर अन्य सभी इन्द्रियाँ निश्चय ही वश में हो जाती है। जैसे कि 'तुम्बिनी' नामक वनस्पति रूप पौधे की जड़ नष्ट हो जाने पर उसके पत्ते तो अवश्य ही.सूख जाते हैं-ट हो जाते हैं । इस गाथा में 'अवश्य अव्यय के स्थान पर 'अठसें' रूप का प्रयोग फरके इसमें 'डे - ऐं अव्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में सिद्धि की गई है। 'श्रवस' का उदाहरण यों हैं:-- संस्कृतः-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां = श्रवस न सुअर्हि सुहच्छियहि जरूर ही (निश्चय हो ) वे सुख-शैय्या पर नहीं सोते है । इस गाथा-चरण में 'अवश्यम्' के स्थान पर 'अवम' रूप का प्रयोग करते हुए यह प्रमाणित किया है कि 'अवश्यम्' अव्यय के रूपान्तर में स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'अ' प्रत्यय की संयोजना होती है ।। ४-५२७ ।। एकशसो डि ॥ ४-४२८ ॥ अपभ्रशे एकशशब्दात् स्वार्थे डि भवति । एकसि सील-कलंकि छाई देहि पच्छित्ताई ।। जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु, तसु पच्छित्ते काई ॥१॥ अर्थ:--'एक बार इस अर्थ में कहा जाने वाला संस्कृत-अव्यय 'एश: है। इसका रूपान्तर अपभ्रश-भाषा में करने पर इसमें स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'हि' प्रत्यय को प्राप्त होती है । प्राप्त प्रत्यय 'डि' में 'डकार' इत्संजक होने से 'एकशः = एकम अथवा इक' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार' का लाप हा जाता है और तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त रूप 'एकस् अथवा इक्कस' में 'डि= इ' प्रत्यय की प्राप्ति होक व्यवहार योग्य रूप 'एकमि श्रथवा इस' की सिद्धि हो जाती है । जैसे--एकशः = एकामि और इकसि = एक बार | गाथा का अनुवाद यों हैं:--- संस्कृतः-एकशः शीलकलहितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि ॥ यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं, तस्य प्रायश्चित्तेन किम् ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy