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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 6442666660606900 [ ५६६ ] 'डु' में स्थित 'क' वर्ण इत-संज्ञक है; तदनुसार 'पुनर = पुण' में स्थित अन्त्य 'धकार' का लोप होने पर तत्पश्चात् स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में 'उकार' व को प्राप्ति होकर 'पुगु' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'विना' अव्यय शब्द में भी अन्त्य वर्ण 'आकार' का लाप होकर तथा म्यार्थिक प्रत्यय रूप 'कार' वर्ण को संयोजना होने पर इसका रूप 'विरंणु' बन जाता है। बाहरण क्रम से यों हैं: (१) यं विना पुनः अवश्यं मुक्तिः न भवति जसु विणु पुराण मिवु असें न होइ - जिसके बिना फिर से अवश्य ही मुक्ति नहीं होती है। इस उदाहरण में 'पुनः' के स्थान पर 'पुगु' लिखा हुआ है और 'बिना ' स्थान पर विणु' को जगह दी गई हैं। यों स्वार्थिक प्रत्यय 'हुन्छ' की प्रामि होने पर भी इनके अर्थ में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है । यो सर्वत्र समझ लेना चाहिये । गाया का अनुवाद हैं: (१) संस्कृतः स्मर्यते तद् वल्लभं यद् विस्मर्यते मनाक् ॥ यस्य पुनः स्मरणं जातं, गतं, तस्य स्नेहस्य किं नाम १ । १ । । -~ हिन्दी:- जिसका थोड़ा मा बिस्तर हो जाने पर भी पुनः स्मरण कर लिया जाता है; तो ऐसा स्नेह भी प्रिय होता है; परन्तु जिसका पुनः स्मरण करने पर भी यदि उसे भूला दिया जाय तो वह 'स्नेह' नाम से कैसे पुकारा जा सकता है ? इस गाथा में 'पुनः' के स्थान पर स्वाधिक प्रत्यय के साथ 'पुरणु' अव्यय का प्रयोग समझाया है । (२) बिना युद्धेन न चलामद्दे - विणु जुज्झें न चलाहु-इम बिना युद्ध के ( सुख पूर्वक ) नहीं रह सकते हैं । इस गाथा चरण में 'बिना' की जगह पर 'त्रिरणु' अध्ययरूप का प्रयोग किया गया है। ।। ४-४२६ ।। अवश्यमो र्डे - डौ ॥ ४-४२७ ॥ अपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे डेंड इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । जिम्मिन्दिउ नायगु बसि करहु जसु अधिन्नई श्रन्नई | मूलि चिट्ट तुहेिं अवसे सुक्कई पराई १११ ॥ ॥ अवस न सुग्रहि सुहच्छि अर्थ:-- संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'अवश्यम् अव्यय का अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर इसमें 'स्वार्थिक' प्रत्यय के रूप में 'दें और उ' ऐसे दो प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'हें और द' में स्थित 'डकार' वर्ण इत्संज्ञक होने से 'अवश्यम् अषस' में स्थित अन्त्य 'अकार' वर्ण का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् अवस्थित हलन्त 'अवम्' अव्यय में 'ऐं और अ' की क्रम से त्राप्ति होती
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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