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________________ [ ५६८ ] *प्राकृत व्याकरण . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 (२) कस्थार्थ परिग्रहः = फसु तेहिं परिगहु - किसके लिये परिग्रह ( किया जाता है)। (३) मोक्षस्याथै दमम् कुरु = मोखही रेसि दमु करि = मोक्ष के लिये इन्द्रियों का दमन करो। (४) कस्यार्थे त्वं अपरान् कौरम्मान् करोषिकसु रसिं तु हुँ अवर कम्मा (म्भ करेसि = किसके लिये तू दूसरे कार्यारंम करता है ? (५) कस्यार्थे अलोक = कासु तरणेण अलिउ-किसके लिये झूठ ( बोखता है । वृत्ति में आई हुई गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृतः-विट ! एष परिहासः अपि ! भण, कस्मिन् देशे ? अहं क्षीणा तव कृत, प्रिय ! त्वं पुनः श्रन्यस्याः कृते ॥१॥ हिन्दी:-हे नायक ! (हे प्रियतम !) इस प्रकार का मजाक (परिहात = विनोद ) किस देश में किया जाता है। यह मुझे कहो । मैं तो तुम्हारे लिये क्षीण (दुःखी) होती जा रही हूँ और तुम पुनः किसी अन्य (बी) के लिये (दुःस्त्री होने जा रहे हो) । इस गाथा में के लिये ऐसे अर्थ में कम से 'केहि' और 'रेसि' ऐसे दो अव्यय शब्दों का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। (२) महस्वस्य कूते - बहुतणहो तरणे - बड़पन महानता ) के लिये । यो शेष दो अव्यय शब्द 'तेहिं और रेसि' के उदाहरणों की कल्पना भी स्वयमेव कर लेना चाहिये । ये अध्यय हैं, इसलिये इनमें विभक्ति-वाचक प्रत्ययों की संयोजना नहीं की जाती है ॥ ४-४५५ ॥ पुनर्विनः स्वार्थे डुः ॥ ४-४२६॥ अपभ्रंशे पुनर्विना इत्येताम्यां पर: स्वार्थे दुः प्रत्ययो भवति ॥ सुमरिज्जइ तं बल्लई जं धीसरह मणा ॥ जहिं पुणु सुमरणु जाउं गतहो नेहहीं कई नाउं ॥१॥ विणु जुज्में न वलाई ॥ अर्थ:-सूत्र-संख्या ४-४२६ से प्रारम्भ करके सूत्र संख्या ४-४३० तक में स्वार्थिक प्रत्ययां का वर्णन किया गया है। शब्द में नियमानुसार स्वार्थिक प्रत्यय को संयोजना होने पर भी मूल अर्थ में किया भी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं हुआ करती है। मूल अर्थ व्यों का यों ही रहता है । इम सूत्र में यह बनलाया गया है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'पुनर् और विना' अध्यय शब्दों में अपनश भाषा के रूप में रूपान्तर होने पर 'न्हु' प्रत्यय की स्वार्थिक प्रश्यय के रूप में अनुप्राप्ति हुआ करती है, । स्वार्थिक प्रत्यय
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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