SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी वाला सहित * [ ५३५ ] aorrorosotoros0000000000000000000000000000000oretomom भण सहि ! निहुअउं तेवं मई जइ पिउ दिड सदोसु ॥ जे न जाणइ मझु मणु पक्खावडिअं तासु ॥ ४ ॥ जि जिवँ वकिम लोअणहं । तिब तिवं यम्मा निश्रय-सर । मई जाणिउ प्रिय विरहिअहं कविधर होइ विश्राली ।। नवर मिश्रङ्क बितिह तवइ जिह दिणयरू खय-गालि ॥ ५ ॥ एवं तिध-जिधायुदाहायो । अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कर्थ, यथा और तथा' अध्ययों में स्थित '' और 'था' रूप शरात्मक अवयवों के स्थान पर अपभ्रश भाषा में 'एम, इम, इइ और इध' अक्षरामक आदेशप्राप्ति कम से होती है। यह आदेश-प्राप्ति 'डिन्' पूर्वक होती है। इससे यह समझा जाता है कि उक्त तीनों अव्ययों में 'थं' और 'था' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए 'क', 'य' और 'त' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'अ' का भी 'एम, इम, इह और इध' आदेश-प्राप्ति के पूर्व लोप हो जाता है और तदनुसार 'कर्थ' के स्थान पर 'केम, किम, किह और किध' रूपों की प्राप्ति होती है । 'यथा' के स्थान पर 'जेम, जिम, लिध और जिह' रूप होंगे और इसी प्रकार से 'तथा' को जगह पर 'तिम, तेम, तिध और तिह' रूप जानना चाहिये। सूत्र संख्या ४-३६७ के संविधानानुसार 'केम, किम, जेम, जिम, वेम, तिम' में स्थित 'मकार' के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक महित 'व' की प्रापेश-प्राप्ति भी हो जाने से इनके स्थान पर क्रम से 'केव, किर्वे, जेव, जिवे, तेव, तिव, रूपों की श्रादेश-प्रामि भी विकल्प से होगी। यो 'कथं, यथा और तथा' अध्ययों के क्रम से छह छह रूप मपभ्र'श-भाषा में हो जायगे। वृत्ति में दी गई गाथाओं में इन अव्यय-रूपों का प्रयोग किया गया है; तदनुसार इनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृतः कथं समाप्यतां दृष्टं दिन, कथं रात्रिः शीघ्र ( झुडु ) भवति ॥ नव-वधू-दर्शन-लालसक: वहति मनोरथात् सोऽपि ॥१॥ हिन्दी:-किस प्रकार से ( कब शीघ्रता पूर्वक ) यह दुष्ट ( अर्थात् कष्ट-दायक) दिन समाप्त होगा और कब रात्रि जल्दी होगी। इस प्रकार की मनो-भावनाओं को 'नई ब्याही हुई पत्नी को देखने की तीव्र लालसात्राला' वह ( नायक विशेष ) अपने मन में रखता है अथवा मनोरथों को धारण करता है। इस गाथा में 'कथं' अव्यय के स्थान पर प्रादेश-प्रात 'केम और किध' अध्यय रूपों का प्रयोग किया गया है ॥ १ ॥ संस्कृत:--प्रो गौरी-मुख-निर्जितका, वाईले निलीनः मृगाकः ॥ अन्योऽपि यः परिभूततनुः, स कथं भ्रमति निःशवम् ॥ २ ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy