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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ १४७ ] かやのみから00000000000000:00かかります。 आना है यह उपलब्धि प्रासंगक है । और ऐसी स्थिति को 'वृत्ति' में 'लक्ष्यानुसारेण' पद से अभिव्यक्त किया गया है। तम् संस्कृत द्विनीया एकवचनान्त पुल्लिग मर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर (कभी कभी) रणं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७० से मूग संस्कृत शब्द 'ई' के स्थान पर प्राकृत में घंग की श्रादेश-प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में संस्कृत के समान ही प्राकत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रात प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुसार की प्राप्ति होकर णं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' । क्रियपद ) रूम की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२ में की गई है। शोचति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सोअइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च' का लोप और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्रादेप्रामि होकर सोअइ रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ (अव्यय) की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। 'ण' (सर्वनाम) रूप की सिसि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। रघुपति: संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिग का रूप है । इसका प्राकृत रूप रहुबई होता है। इपमें सूत्र-मखमा १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ; २-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति १.५७७ से 'त का लोर और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में इकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रारम्य प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में अंग के अन्त में स्थित हरव स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' को शाति होकर रहुषई रूप सिद्ध हो जाता है। हस्तानामित मुखी संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हत्थुन्नाभि अ-गुही होता है । इस में सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त के स्थान पर '' की प्रापि; २.८ से प्रात 'थ' का द्वित्व 'थथ की प्राधि, २.६० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'त' की प्राप्तिः १-८४ से दोघं स्वर 'ओ' के स्थान पर 'आगे संयुक्त व्यञ्जन 'ना' का सद्भाव होने से द्वस्व स्वर 'ड' की प्राधि; १.९७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हस्शुन्नार्मिअ-मुही सिद्ध हो जाता है। ताम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त स्वीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप 'पं. होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में नालिंग में 'गा' अंग रूप को आदेश-प्राप्ति; ३-३६ से प्राप्तांग णा' में स्थित दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर 'पागे द्वितीया एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' ह्रस्व 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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