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________________ otomorronmentrem..........२०१ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५८१ ] ww w www +++++++ +++++++++ + इउ । मय-घड भन्जिउ जन्ति ।। इवि ॥ रक्खइ सा विस-हारिणी, बे कर चुम्पित्रि जीउ ।। पडिविम्बिन-मुजालु जलु जेहि अहोडिअ पीउ । २|| अयि ।। बाह विछोडवि जाहि तुहूं, हउं तेइ को दोसु ॥ हिश्रय-द्विउ जइ नोसरहि जाणउं मुञ्ज सरोसु ॥ ३ ॥ भर्थ:-'करके' इस अर्थ में मम्बन्ध कृदन्त का विधान होता है। यह कृदन्त विश्व की ममी अर्वाचीन और प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध है । संस्कृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी नियमानुसार इसका अस्तित्व है । तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस अर्थ में स्वा' प्रत्यय का संविधान होता है और अपभ्रंश भाषा में इस 'क्रया' प्रत्यय के स्थान पर पाठ प्रत्ययों को आदेश प्राप्त होती है; इन आठ प्रत्ययों में से चार प्रत्ययों की व्यवस्था तो इसी सूत्र में की गई है और शेष चार प्रत्ययों का संविधान सूत्र-संख्या ४-५४० में पृथक्-रूप से किया गया है। इसमें यह कारण है कि ये शेष चार प्रत्यय संबंधकृदन्त में भी प्रयुक्त होते हैं और इत्यथ कदन्त में भी काम में अाते हैं। यों उनको स्थिति उभय रूप वाली है इसलिये उनका विधान पृथक सूत्र को रचना करके किया गया है। इस सूत्र में सबंध-कृदन्त के अर्थ में जिन चार प्रत्ययों की रचना की गई है; वे क्रम से इस प्रकार हैं: (१) इ. (२. इ3, ३) इवि और (४) अवि । जैसे:- कृत्वा (१) करि, () करिज, (:) करिवि श्रा' (४) करवि = करकं । (२) लध्या = (१) लहि, (२) लहिल, (३) लहिवि और (४) लहवि प्राप्त करके-पा करके । वृत्ति में चारों प्रत्ययों को समझाने के लिये चार गाथाएं उधृत की गई हैं। उनका अनुवाद क्रम में यों हैं:-- (१) संस्कृतः- हृदय ! यदि वैरिगो घनाः, तत् कि अघ्र आरोहामः || अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा नियामहे ॥१॥ हिन्दी:-हे हृदय ! यदि ये मेघ (बादल-समृद्द ) ( विरह-दुःख उत्पादक होने से ) शत्रु रूप है तो क्या इन्हें नष्ट करने के लिये श्राकास में ऊपर चढ़ें ? अर ! हमारे भी दो हाथ हैं, यदि मरना ही है ती प्रथम शत्रु को मार करके पीछे हम मरेंगे ।।१।। हम गाथा में 'मारयित्वा' पद के स्थान पर 'मारी' पद का उपयोग करते हुए 'स्त्रा' प्रत्यय के अर्थ में अपभ्रश में 'ई' प्रत्यय का प्रयोग समझाया गया है। (२) संस्कृतः-गज-घटान मित्या गच्छन्ति = गय-घड भन्जिन जन्ति हाथियों के समूह को भेद कर के जाते हैं । यहाँ पर 'भिश्वा' के स्थान पर 'भजि' लिख करके द्वितीय प्रस्थय 'इन' का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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