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________________ [ ५८२ ] * प्राकृत व्याकरण ••• • • • • • • •* * * *•*: 44-46 44: •• • • • tái đĩ) +++++++++++++++++++++++ + (३) संस्कृतःचति सा विषहारिणी, द्वौ करो चुम्बित्या जीवम् ॥ प्रतिविम्बित मञ्जालं जलं, याभ्यामनघमाहितं पीतम् ३॥ हिन्दी:-( जिसके प्रालिंगन करने से काम-विकार रूप विष दूर होता है ऐसी) विष को हरण करने वाली यह नायिका शेष अपने दोनों हाथों का चुम्बन करके अपने जीवन को रक्षा कर रहो है। क्योंकि इन दोनों हाथों ने जल के अन्दर इबकी लगाये बिना ही उभ जल का पान किया है। जिसमें कि मुख गजा का ( अथवा मुख नामक घास विशेष का) प्रतिबिम्ब पड़ा है । इस छंद में चुम्मिला' पद में रहे हुए संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्यय 'क्या' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'चुम्बिवि पद का निर्माण करके तदर्थक 'इवि' प्रत्यय का संयोग सूचित किया गया है ।।३।। (४) संस्कृतः-वाहू विच्छोटय याहि त्वं, भवतु तथा को दोषः १ हृदय स्थितः यदि निः सरसि, जानामि मुञ्जः सरोषः ।।४ ! हिन्दी:-अरे मुञ्ज ! यदि तुम भुजाओं का झुका के जाते हो तो इसमे कौन सा दोष है ? अथवा कौनसी हानि है ? क्योंकि तुम मेरे हृदय में बसे हुए हो और ऐसा होने पर यदि तुम मे इस्य में से निकल कर भागो तो मैं जान कि मुञ्ज मुझ से रूष्ट है। यहाँ पर संबंध कान्त अर्थ में 'विच्छोट्य पद आया हुआ है, जिसका भाषान्तर अपभ्रश भाषण में 'विछोनि' पद के रूप में किया है और ऐसा करते हुए संबंध-कृदन्त-अर्थ-वाचक-प्रत्यय 'अवि' का प्रयोग किया गया है। यों चागे प्रकार के प्रत्ययों की स्थिति को समझ लेना चाहिये || ४-४१ ॥ एप्प्येप्पिण्वव्येविणवः ॥४-४४० ॥ अपभ्रंश क्या प्रत्ययस्य एप्पि, एपिवणु, एवि, एविणु इत्येतं चत्वार प्रादेशा भवन्ति । जेपि असेसु कमाय-बलु देष्णुि अभउ जयस्सु ॥ लेवि महब्बय सिवु लहहिं झाएवणु तत्सस्सु ॥१॥ पृथग्योग उसराथः।। अर्थ:-इस सूत्र में भी संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्ययों का ही वर्णन है। ये प्रत्यय हेत्वर्थ कृदात के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं। इसलिये इन प्रत्ययों को एक साथ पूर्व-सूत्र में नहीं लिखते हुए पृथक-सूत्र के रूप में इनका विचार किया गया है। इस अर्थ को प्रदशिन करने के लिये वृत्ति में 'पृथक् योग' और उत्तरार्थः ऐसे दो पद खास तौर पर दिये गये हैं। 'पृथक-यांग' का तात्पर्य यही है कि इन प्रत्ययो का सम्बन्ध कन्य कदन्त ( अर्थात हेत्वर्थ-वृदन्त । के लिये भी है । 'चरार्थः' पद का यह अर्थ है कि इन प्रत्ययों का वर्णन और सम्बन्ध आगे के सूत्र से भी जानना । यो संबंध कुदन्त के अर्थ में (और हेत्वर्थ
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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