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________________ [ ४४६ ] * प्राकृत व्याकरण romot.000000000mtorrorrentert+00000000000000000000000000000000000000 भारम्भ करके सूत्र संख्या ४.२८५ क अन्तगत प्रदर्शित कर दिया गया है और शेष सभी नियम प्राकृत्तभाषा के समान ही जानना; तदनुसार सूत्र-संख्या १-४ से प्रारम्म करके सूत्र-संख्या ४-२५६ तक के विधि-विधानों को शौरसेनी भाषा के लिये भी कल्पित कर लेना । यो प्रत्येक सूत्र में प्रदर्शित परिवर्तन जैसा प्राकृत-भाषा के लिये है वैसा ही शौरसेनी भाषा के लिय मो स्वयमेव समझ लेना चाहिये । शौरसेनी भाषा का मूल आधार प्राकृत भाषा ही है और इसीलिये संस्कृत भाषा से प्राकृत भाषा की तुलना करने में जिन नियमों का तथा जिन विधि-विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन किया जाता है उन्हीं नियमों का तथा उन्हीं विधि विधानों का प्रयोग एवं प्रदर्शन भी शौरसनी भाषा के लिये किया जा सकता है । सूत्र-संख्या ४-२६० से ४-२८५ तक में वर्णित भिन्नता का स्वरूप स्वयमेव ध्यान में रखना चाहिये । कुछ एक उदाहरगा यों हैं:संस्कृत प्राकृत शौरसेनी हिन्दी अन्तर्वेदिः = अन्तावेई - अन्ताबेदी मध्य की वेदिका। अवति-जनः = जुवइ-अणो - जुबदि -जणों - जवान स्त्री-पुरुष । मनः शिलामणमिला मणसिला = मन शोल एक उपधातु यो प्राकृत-भाषा के और शौरसेनी भाषा के एक हो जैसे शब्दों में पूर्ण साम्य होते हुए भी जो यम-किञ्चित् अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उसका माधा । सूत्र संख्या ४-२६० से लगाकर सूत्र संख्या ४.८५ तक में वर्णित विधि-विधानों से कर लेना चाहिये । शेष मब कार्य प्राकृत के समान हो जानना ।। ४-२८६ ।। इति शौरसेनी-भाषा-विवरण समाप्त TAP
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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