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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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के स्थान पर 'पण' प्रत्यय को प्रस्थापित किया है । अपभ्रश भाषा में अनेक नियम ऐसे हैं, जोकि 'प्रायः' करके लागू हुडा करते हैं; तदनुसार 'पण' प्रत्यय के स्थान पर प्रायः करके 'तण' प्रत्यय (२-१५४ के अनुसार) भी पाया करता है। जैसे:-(१) भद्रत्वम् = भलत्तणु = भद्रता-सजनता । (२) महत्त्वस्य कृते - बहत्तणहो तगेण =बड़ापन प्राप्त करने के लिये । यो 'पण' और 'तण' दोनों प्रत्ययों की प्राप्ति 'त्व तथा तल' प्रत्ययों के स्थान पर देखी जाती है ।। ४-४३७ ॥
तव्यस्य इएवढं एवढं एवा ॥ ४-४३८ ।। अपभ्रंशे तव्य प्रत्ययस्य इएन्धउं एबउं एका इत्येते अय प्रादेशा भवन्ति ।
एउ गृण्हेप्पिणु ६ मई जइ प्रिउ उव्वारिज्जाइ । महु करिएबउं किं पि णवि मरिएब्बउं पर देज्जइ ।।१।। देसुबाडणु सिहि-कढणु घण- ककृणु जं लोइ ॥ मंजिहुए अइरत्तिए सव्वु सहेन्चउँ होइ ॥२॥ सोएवा पर वारिश्रा, पुष्फबईहिं समाणु ।।
जग्गेया पुणु को धरम, जइ सो वेउ पमाणु ॥ ३ ॥ भर्थ:-'चाहिये' इस अर्थ में संस्कृत-भाषा में 'सव्य' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तव्य' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में तीन प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति हुश्रा करती है। जोकि कम से इस प्रकार हैं:
(१) इबडं, () एथ्वउं और (३) एवा । जैसे:-कर्तव्यम्-करिएव्य करेबर और करवा करना चाहिये । तीनों प्रत्ययों को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथाऐं दी गई हैं, उनका अनुवाब क्रम से यों हैं:-- (१) संस्कृतः–एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्धार्यते ॥
मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं परं दीयते ॥१॥ हिन्दी:--( कोई सिद्ध पुरुष-विशेष अपनी विद्या की सिद्धि के लिये किसी नायिका-विशेष को धन आदि देकर उसके बदले में बलिदान के लिये उसके पति को लेना चाहता है। इस पर वह नायिका कहती है कि:-) यदि यह ( धन-संपत्ति ) ग्रहण करके मैं अपने पति का परित्याग कर देती हूँ तो फिर मेरा कुछ भी कत्तंव्य शेष नहीं रह जाता है, सिवाय इसके कि मैं मृत्यु का आलिंगन कर लूँ । अथान् तत्पश्चात् मुझे मर जाना ही चाहिये । इस गाथा में 'कत्र्तव्यं और मतव्य' पदों में पाये हुए 'तव्य' प्रत्यय के स्थान