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________________ [ ५७८ ] * प्राकृत व्याकरण अर्थ:-सस्कृत-भाषा में अपलब्ध सर्वनाम शब्दों में सप्तमी बोधक जो 'त्र' प्रत्यय लगता है; उम 'त्रप्' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में उत्तहे' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। प्रात प्रत्यय 'डेत्तहे' में अवस्थित 'डकारवणं' इत्संज्ञावाला है, तदनुसार इस 'उत्तहे' प्रत्यय की संप्राप्ति होने के पूर्व सर्वनाम शब्दों में स्थित अन्त्य व्यञ्जन का और उपान्त्य स्वर का लोप हो जाता है और तत्पश्चात् ही इस 'उत्तहे = पत्तहे' प्रत्यय का संयोग होता है । जैसे:--- (१) सर्वत्र = सम्वेत्तहे = सब स्थानों पर । (२) कुत्र = फेत्तई - कहाँ पर। (३) यत्र जेत्तहे - जहाँ पर। (४) तत्र = तेत्तद्दे - यहाँ पर। (५) अन्न - एत्तहे = यहाँ पर ! गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत:- अत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठुला भवति ।। प्रिय-प्रभ्रष्टे गौरी निश्चला कापि न तिष्ठति । १॥ हिन्दी:-जैसे पति से भ्रष्ट हुई श्री कहीं पर भी स्थिर होकर निश्चल रूप से नहीं ठहरती हैं। वैसे हो अस्थिर प्रतिवाली लक्ष्मी भो घर-घर में और द्वार-द्वार पर यहाँ वहाँ घूमती रहती है। इस गाथा में 'मत्र, तत्र' शब्दों के स्थान पर 'एसई और तेत्तहे' शब्दों का प्रयोग करते हुए 'त्रप' प्रत्यय के स्थान पर मादेश प्राप्त प्रत्यय 'डेसहे = एतहे' की साधना की गई है। इस देत - एत्तहे' प्रत्यय की सर्व. नाम-शब्दों में संप्राप्ति होने के पश्चात् ये शब्द अव्यय रूप हो जाते हैं, यह बात ध्यान में रहनी चाहिये। ॥४-४३६ ॥ स्व-तलो: प्पणः ॥ १-४३७ ॥ अपभ्रशे त्व नलोः प्रत्ययोः प्पण इत्यादेशो मपति ॥ बाप्पा परि पाविआइ ॥ प्रायोधिकारात् । बहत्ताहो तोण । अर्थ:-प्रयकार ने अपने संस्कृत-व्याकरण में ( म० ७-में ) भाव-वाचक अर्थ में 'स्व और तल' प्रत्ययों को प्राप्ति का संविधान किया है। उन्हीं 'स्व और तत् प्रत्ययों के स्थान पर अपभ्रश भाषा में 'पण' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः-भद्रत्वं = भल्लप्पणु = भद्रता-उजनता । (२) महत्त्व पुनः प्राप्यते = वृप्पणु परिपावित्रा बाजन तभी प्राप्त किया जा सकता है। इन उदाहरणों में 'ख'
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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