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________________ . प्राकृत व्याकरण के घानना चाहिये कि प्रथम और तृतीय रूपों में इस्या' प्रत्यय को प्राप्ति होने पर सूत्र संख्या १.१० से अंग रूप 'च्छि और गच्छहि' में स्थित अन्त्य स्वर 'इ' के आगे प्राप्त 'इत्या' प्रत्यय में स्थित मादि स्वर' का सदभाव होने के कारण से लोप हो जाता है। गमिष्यामि संस्कृत के भविष्यत् काल तताय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गमिछमि, गच्छिहिमि, गच्छिम्मा म, गच्छिहामि, गच्चिस्म और गच्छं होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' के स्थान पर प्राकृन में भविष्यत काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ की आदेश-प्राप्ति, ३-१५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप नक प्राप्त प्राकृत-शब्द 'गच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत काल वाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' को प्रारित, ३-१६६ और ३-१६७ से द्वितीय रूपः तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक रोति से प्रामांग 'गच्छि' में भविष्यत्काल पापक प्रत्यय हि, मा, और हा' को कम से प्राप्ति; ३-५७२ से प्रथम रूप में भावव्यतकाल वाचक प्राप्तव्य प्रत्यय हिस्सा, अथवा हा' का लोप और ३-१४१ से भविष्यत् काल के अर्थ में कम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग गरिछ, गपिछ है, गच्छित्सा और गच्छहा में तृतीय पुरुष के एकत्रचन के अथ में प्राप्नव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम र रूप गलिमि.गच्छिहिमगच्छस्सीम भौर गच्छिहामि सिद्ध हो जाते हैं। गरिस में मूल प्रावत-अंग 'गच्छि' की प्रास उपरोक्त चार माँ में वर्णित विधि-विधाना. नुसार जानना चाहिये । तत्पश्चात् प्राप्तांग गांछ' में सूत्र संख्या ३.१६ से भविष्यत काल के अर्थ मे तृतीय पुरुष के एकवचन के मद्भाव म केवल 'स्म' प्रत्यय को ही प्राप्ति होकर शेष ममो प्रतदर्थक प्रायव्य प्रत्ययों का प्रभाव होकर पञ्चम प गरिस्सं सिद्ध हो जाता है। छ8 रूप 'गच्छं की सिदि सूत्र-मंख्या--१७१ में की गई है। गामच्यामः संस्कृत के भविष्यात काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप यहाँ पर केवन छ ही दिये गये हैं। जोकि इस प्रकार हैं:-- गच्छिमो, २ गच्छ. हिमो, ३ गच्छिासामो, ४ गमिडहामा ५ गच्छिहिमा और ६ गच्छिहित्था ! इनमें प्राकृत रूपांग 'गम्छि' को प्राप्ति इसी मूत्र में उपरोक्त तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित सूत्र संख्या ३.१७१ तथा ३-१५७ से जान लेना चाहिये; तत्पश्चात प्रारपांग 'गमिछ' में सूत्र संख्या ३.१६६ और ३- १७ से हिस्सा और हा' की क्रम में प्राप्तिः ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यात काल-वाचक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि अथवा स्सा अथवा हा' का लोप; और ३.१४ से भविष्यत काल के अर्थ में कम से प्रा: प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग 'गच्छि, गच्छिहि, गल्सिा और गांच्हा ' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर कम से प्रथम चार रूप 'गच्छिमी, गच्छिहिमो, गच्छिस्तामो और गस्छिहामी' सिद्ध हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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