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________________ [ ५७३ ] (१) ते का धन्याः ते धन्ना कन्नुल्लडावे कान धन्य हैं। इस उदाहरण में 'हुल्लडड' प्रत्ययों को संप्राप्ति हैं । * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ****$6400666666660�04 (२) तानि हृदयकानि कृतार्थानि = हिउल्ला ति कयत्थ = वे हृदय कृतार्थ ( सफल ) हैं । इसमें 'अदुल्ल' प्रत्यय है । (1) नवान् श्रुतार्थान् घरन्ति नघुल्लड सुझत्थ धरहिं नूतन श्रत अर्थ ( शास्त्र - तात्पर्य ) को धारण करते हैं। इस में तीनों स्वार्थिक प्रत्यय आये हैं। जोकि इस प्रकार से है:- बुल्लडडर = उल्ल४ ॥ वृत्ति में श्राये हुए उदाहरणों का स्वरूप क्रम से इस प्रकार हैं:-- -- - (१) स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं = फोडेन्सि जे श्रिवं अपएवं = जो ( दोनों स्तन ) अपने खुद के हृदय को दी विदारण करते हैं। इस चरण में 'हिड' पढ़ में 'ड' ऐसे दो स्वार्थिक प्रत्ययों की एक साथ प्राप्ति हुई हैं। 'हृदय' शब्द में अवस्थित 'यकार' का सूत्र संख्या १-२६६ से लोप हुआ है । (२) कङ्कणं चूर्णी भवति स्वयं = चूहल्लउ चुन्नी होइ सद= ( हाथ में पहिना हुआ ) कंकण अपने आप ही टुकड़े टुकड़े होकर चूर्ण रूप हुआ जाता है। इस गाथा-पाद में 'घुकुल्लट' पद में 'डुल्लन = उल्ाच' ऐसे दो प्रत्ययों की प्राप्ति स्वार्थिक-प्रत्ययों के रूप में एक साथ हुई है । (३) संस्कृतः - स्वामि-प्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासंधी वासम् ॥ भेदय बाहुबलं धन्या मुश्चति निश्वासम् ॥ १ ॥ हिन्दी: - कोई एक नायिका विशेष अपने प्राण पति की इस प्रकार की स्थिति को देख करके अपने आपको धन्य स्वरूप समझती हुई परम शांति के गम्भीर विश्वास लेती है कि उसके पति के प्रति सेनापति को कृपा-दृष्टि है, उसका पति लज्जावान है, वह (रक्षेत्र के मोर्चे पर ) देश के सीमान्त भाग पर रहा हुआ है और अपने प्रचंड बाहु बल का प्रदर्शन कर रहा है। इस गाथा में 'बाहुबलुल्लडा' पद में 'डुल्लडड = उल्लड' ऐसे दो स्वार्थिक-प्रत्ययों की संप्राप्ति एक साथ प्रदर्शित की गई हैं। 'दुल्ल + उड'- इन दोनों प्रत्ययों में आदि में अवस्थित प्रत्येक 'डकार' वर्ण इक है इसलिये इनका लोप हो जाता है और शेष रूप में उल्ल + अ' रहता है; तत्पश्चात् पुनः सूत्रसंख्या १५० से 'ल्ल' में स्थित अन्त्य 'अकार' का भी लोप होकर तथा दोनों की संधि होकर 'उल्ल' प्रत्यय के रूप में इनकी स्थिति बनी रह जाती है। 'बाहु-बलुल्लडा' पद में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' की प्राप्ति सूत्र संख्या ४-३३० के कारण से हुई है । जैसा कि उसमें उल्लेख है कि अपभ्रंश भाषा में सखाओं में विभक्ति वाचक प्रत्ययों की संयोजना होने पर प्रत्ययान्त-स्थित स्वर कभी इसे दीर्घ हो जाते हैं और कमी दीर्घ से हस्व भी हो जाते हैं।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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