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________________ [ २०११ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 100000000000000000+stoissersacrossovo.20000000000000rashtr+s0600 द्वाभ्याम् संस्कृत तृतीया द्विवचनात संख्यात्मक मर्वनाम { और विशेषण ) रूप है। इसके प्रान कप 'बाहि' और 'हि' होत हैं । हममें सूत्र संख्या ३-१६९ से मूल मंस्कृत शब्द के स्थान पर प्रावत में से की और 'वे' an रूपों घी अ'देश-प्राणिः । १३० से संस्कृतीय द्विवचनात्मक पद से प्राकृत मे हुवचनामक पद की (पर्याय अयाथा की प्राप्ति और ३.७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्रामांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत्तीय प्राव्य प्रत्यय याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आवेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप दाहि और घोहि सिद्ध हो जाते हैं ।। कर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में का गई है। द्वाभ्याम् संस्कृत पञ्चमो द्विवचनान्त मंख्यात्मक मर्वनाम (ोर विशेषण ) है। इसके प्राकृत रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्दो' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-११६ मे मूल मंस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकत में क्रम में 'दो' और 'ई' अंगरूपों को श्रादेश-प्राप्ति; ३-१३० में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का मात्र और ३.६ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग दो' और 'वे' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यांम' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की आवेश-प्राप्ति होकर क्रम से दोनों कए दाहिन्तो' और 'हिन्सो सिंद हो जाते है। 'आगओ' रूप की मिद्धिमत्र-सक्ष्या १-०९ में की गई है। तो. संस्कृत पष्ठी द्विवचनान्त संख्यात्मक पर्वनाम ( और विशेषण ) २.१ है । इसके प्राकन रूप 'दोरह' और 'राह' होते हैं । इनमें सूअ-संख्या ३-०१६ से मून संस्कृत शरद 'वि' के स्थान पर प्राकृत में कम सं 'दा' और वे' अंगरूपों को आदेश-वानि; ३.६३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का मदभात्र और ६-१.२ से पाठः विभक्ति कं बहुवचन में पाप्तांग 'दो' और 'व' में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्राम के स्थान पर प्राकृत में 'राह' प्रत्यय का श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप दाण्ई' और 'वाह' सिद्ध हो जाते है 'धणं झप की सिद्धि मूत्र-भख्या 8.10 में की गई है। द्वयोः मंस्कृन मातमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रप है। इसके प्राकृत रूप मासु और वसु होते हैं। इनमें मूत्र-संख्या ३-११६ से 'द्वि' के स्थान पर 'दो' और 'ई' अंग रूपों की क्रम में श्रादेश-पिता ३.१३० मे द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का पदभाव और ४.१४- से सप्तमी विनिता के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान को प्राकन में मा 'सु' सत्यय को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप 'दोसु' और धसु' सिद्ध हो जाते हैं । 'ठि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है। ३-११६ ।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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