SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ → [ ४१९२ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित प्रादेः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं पा भवति । पमिइ । पमीलः । निमिल्लड़ । निमीलह | संमिल्ल | संमीलइ | उम्मिन्ल उम्पील | प्रादेरिति किम् । मीलइ ॥ 1 4444444 अर्थः- 'मूदना, बन्द करना' अर्थक संस्कृत धातु 'मोल' के पूर्व में यदि 'प्र, नि, सं, उत' आदि उपसर्ग जुड़े हुए हो तो 'मील' धातु के अन्त्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर 'लकार' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से हिन्द 'ल्ज़' की माधि हो। जैसे-नीति-प्रमिलाइ अथवा पलड़= वह संकोच करता है, वह सकुचाता है । (१) निमीलति = निमिल्लइ अथवा निर्मालइ = वह घाँख मूँदता है अथवा वह आँख मोषता है | (p) संगीति-संमिलइ अथवा संमल = वह सकुचाता है अथवा यह संकोच करता है । (४) उन्मीलति = उम्मिल्लर अथवा उम्मीड़ वह विकसित होता है, वह खुलता है । अथवा वह प्रकाशमान होता है । यों अन्य उपसर्गों के साथ में भी 'मिल और मील' की स्थिति को समझ लेना चाहिये । प्रश्नः - 'प्र' यादि उपसर्गों के साथ ही विकल्प से द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'मील्' धातु के पूर्व में 'प्र' यादि उपसर्ग नहीं जुड़े हुए होंगे तो इस 'मी' धातु में स्थित हलन्त अन्त्य व्यञ्जवाक्षर 'लकार' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं होगी। जेसे:-मीलति = मीas: वह मूँदता है, वह, बन्द करता हैं। यों एक ही रूप 'मील' ही बनता है। इसके साथ 'मिल्ल रूप नहीं बनेगा || ४-२३२ ॥ उवर्णस्यावः ॥ ४- २३३ ॥ धातोरन्त्यस्योवर्णस्य अवादेशो भवति ॥ न्हुङ । निइवइ || हु | निहवद्द | च्युङ । चव || रु | रवइ ॥ कु । कथइ || सू । सब पसवइ ॥ अर्थः---संस्कृत धातुओं में स्थित अन्त्य स्वर 'ब' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'श्रव' को आदेश प्राप्ति होती हैं । जैसे:-निन्दुते - निषद वह अपलाप करता है, वह निंदा करता है । निन्दुते= निहवः = वह अपलाप करता है। व्यवति = चवइ = वह मरता है, वह जन्मान्तर जाता है । रौति = खइ = वह बोलता है, वह शब्द करता है अथवा वह रोता है। कवति कवइ = वह शब्द करता है, वह आवाज करता है। सुते-सव वह उत्पन्न करता है, वह जन्म देता है। प्रसूते = पसवइ = यह जन्म देता अथवा उत्पन्न करता है । = = उपरोक्त उदाहरण में 'निन्दुनिएर नि + = निश्व, च्यु = चा रु= रत्र, कु = कब, और सूम' धातुओं को देखने से विदित हो जाता है कि इनमें 'उ' अथवा 'ऊ' स्वर के स्थान पर 'अ' अक्षरांश की प्राप्ति हुई है ।। ४-२३३ ।।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy