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________________ [ ३१८ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। पश्यतु, पश्येन और दृश्यात् संस्कून के क्रमशः प्राज्ञार्थक, विधि-अर्थक, और प्राशोषक के प्रथम पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छर होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१८ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' रूप की श्रादेश प्राप्ति और ३.१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत-धातु पच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथम पुरुप के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल 'उ प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छउ रूप सिद्ध हो जाता है। पत्य, पश्यताम् पश्यः और दृश्याः संस्कृत के क्रमशः प्राज्ञाक, विधि-अर्थक और आशीषर्थक लिङ के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूपहैं । इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक रूप पेच्छसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-५८१ से मुल संस्कृत धातु 'श' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ की श्रादश-प्राप्ति और ३.१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत-धातु 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकत्रचन के सद्भाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्रारित होकर पेच्छसु रूप सिद्ध हो जाता है । पश्यानि, पश्येयम् और दृश्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक विधि अर्थक और प्राशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्रकृत्त में समान रूप से एक ही रूप पेच्छाम होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'श' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' को श्रादेश-प्राप्ति; ३.१५५ से आदेश प्राप्त धातु 'पंन्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'पेक्छा' में उक्त तीनों लकारों के अर्ध में ततीय पुरुष के एक वचन के सदुभाव में प्राकन में 'मु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छाम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७३ ।। सोहिर्वा ॥ ३-१७४ ॥ पूर्व सूत्र विहितस्य सोः स्थाने हिरादेशो या भवति । देहि । देस् ॥ अर्थः-अाझाक अर्थात लोट-लकार के विधि-अर्थक अर्थात लि-लकार के और आशीप. थक-लिक लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३.१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है, उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'हि' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है । इस प्रकार से प्राकृत भाषा में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में दो प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि इस प्रकार हैं:--(१) 'सु' और (२) 'हि' । मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है किन्तु वैकल्पिक स से इस 'हि' प्रत्यय की भी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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