SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्राकृत व्याकरण . [ ३२३ ] Roomooooooroscook.000000000mmssoonrscoortoonsorresor00000wstraram प्राकृत में प्राग हमा' में उक्त तीनों प्रकार के कारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय मो' भी प्रााम होकर हसामो हप सिद्ध हो जाता है। स्वरस्ताम, वरेरन और त्वरिषीरन सस्कृत के मशः उक्त दानो लकारों के प्रथम पुरुष के बहुवचन के अवर्मक याम नेपः क्रियापद के रुप हैं । इन मभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुरन्तु होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-१५० से मूल संस्कृत धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'सुवर' की श्रादेश प्राप्ति और ३.७६ में उत तीनों लकारों के प्रथम पुरुष के बहुवचन के सभाव मे प्राकृत में ग्रानाग 'सुबर' में 'न्तु प्र-यय की प्रामि होकर तुवरन्तु रू; सिद्ध हो जाता है। स्वरध्वम्, स्वरघम् और त्वरिषीवम् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक प्रात्मनेपदी क्रियापर के रूप हैं। इन सभी रूपों क स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुबारह होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१५० से मूल संस्कृत-धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'घर' की आदेश-प्राप्ति और ३.१७६ से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत म प्राग 'तुबर' में 'ह' प्रःयय की प्राप्ति होकर तुघरह रूप सिद्ध हो जाता है। विरामहै, त्वरेमहि और वरिषीमहि संस्कृत के क्रमशः उक्त तोनों प्रकार के लकारों के तृनाय पुरुष के बहुवचन के अकमक अात्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में भमान रूप से एक ही सप तुवामा होना है। इसमें सूत्र संख्या ५-१७० से मूल संस्कृत-धातु 'स्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर का आदेश प्राप्ति; ३- ५५ से प्रदेश प्राप्त धातु अङ्ग 'तुवर' में स्थित अन्त्य स्वर 'चा' क स्थान पर आगे 'मो' प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'श्रा' की प्राप्ति और ३.१७६ से साम प्राकृत अंग 'तुवरा' में उक्त तीन प्रकार के लकारों के तृताय पुरुष के बहुवचन के अध में प्राकृत में 'गो प्रत्यय की प्राम होकर तुवरामो पलित हो जाता है। ३-१७६।। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा बा ॥३-१७७॥ ___ वर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विध्यादि पु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्न ज्जा इत्येता. वादेशी घा भवतः । पई यथा प्राप्तम् ।। वर्तमाना । हसेन्ज । हसेज्जा । पढेज्ज । पढेजा । सुणेज्ज । सुणेज्जा ॥ पञ्। हसह । पढइ । सुणइ ।। भविष्यन्ती ! पढेज | पहेजा। पक्षे । पहिहिह ॥ विध्यादिषु । हसेज्ज । हसिना । हसतु । हसेद्वा इत्यर्थः । पक्षे । हमउ ।। गर्व सर्वत्र । यथा तृतीयत्रये । अइयाएज्जा । अइवायावेज्जा । न समणु जाणामि । न समणु नागोज्जा वा ॥ अन्येत्वन्यासामपीच्छन्ति । होज्ज । भवति । भवेत् । भवतु । अभवन् । अभूत् । बभूव । भूयात् । भविना । भविष्यति । अभविष्यद्वत्यथः ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy