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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २१ weakreserrorenossocessoorieskterrporatorrrrrrrrrrrestromitram प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर ज्यां का त्यों ही बना रहा है। जबकि प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अन्स्य ह्रस्व स्वर दोध हो जाता है; ऐमा अन्तर प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर इस प्रकार का उल्लेख करना पड़ा है। कोई कोई प्राकृत भाषा के विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' अादेश की प्राप्ति भी होती हैं । ऐसी स्थिति में अन्त्य हृम्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'मि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता का भी अभाव करके प्रथमा-विमक्ति बाधक 'म्' प्रत्यय की प्रदेश रूप कल्पना वैकल्पिक रूप से करते हैं । जैसे:- अग्नि =अग्गि; निधिः = निहिं; वायुः वाउं और विधुः अथवा विभुः = विहुं । इत्यादि । इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्ति चोधक 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' रूप प्रत्ययकी कल्पना की गई है । किन्तु यह ध्यान में रहे कि ऐसे रूपों का प्रचलन अत्यल्प है-गौण है। 'बहुलाधिकार' से ही ऐसे रूपों को कहीं कहीं पर स्थान दिया जाता है। सर्व-सामान्य रूप से इनका प्रचलन नहीं है। गिरिः-संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप गिरी होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व पर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्धिः-संस्कृत प्रश्रमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। तरूः संस्कृत प्रथमान्न एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'मि' के स्थान पर अन्य उ' को 'क' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुः संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रामि और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में "स' के स्थान पर अन्त्य 'ए' को 'क' को प्रामि होकर पा रूप सिद्ध हो जाता है। दधिम् संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिं होता है । इममें सूत्र-संरच्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राम; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' अनुस्वार होकर दहिं रूप सिद्ध हो जाता है। मधुम् संस्कृत प्रथमान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप म होता है। इसकी सानिका 'दहि' के समान ही होकर मईप सिद्ध हो जाता है
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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