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________________ * प्राकृत व्याकरणा* orkottestostostrotestostosterot torrrrrrrrrrrrrrrrothers थेनः-संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से '' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शास' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३.१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्य इस्व स्वर 'व' को दीर्घ स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर घेा रूप सिद्ध हो जाता है। 'येच्छ':-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.२३ में की गई है । 'वच्छे':-रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३.४ में की गई है । ३-१८॥ ___ अक्लीबे सौ ॥३-१६॥ इदत्तो क्लीचे नपुंसकादन्यत्र सौ दीपों भवति ।। गिरी | बुद्धी । तरू। घेणु ॥ अक्लीव इति किम् । दहि । महूं ॥ साविति किम् । गिरि , बुद्धिं । तर । घेणु ॥ केचित्त दीर्घत्वं विकल्प तदभावपक्षे सेमादेशमपीच्छन्ति । अगि । निहिं । वाउं । बिहुँ । अर्थ-प्राकृतीय इकारान्त और उकारान्त शब्दों में से नपुसक लिंग वाले शब्दों को छोड़कर शेष रहने वाले पुलिलग और स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त होने वाले 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घ 'ई' की अथवा दीर्घ 'ऊ' की यथा क्रम से प्राप्ति होती है । सारांश यह है कि इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय का लोप होकर दीघ स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:-गिरिःगरी; बुद्धिः-बुद्धी; तरु:-तरू और धेनुः धेणू इत्यादि । प्रश्न:----इकारान्त अथवा अकारान्त नपुसक लिंग वाले शब्दों का निषेध क्यों किया गया है। उत्तरः-इकारान्त अथवा उकारान्त नपुंसक लिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सूत्र-संख्या ३-२५ के विधान से प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हलन्त म्' की प्राप्ति होती है; अतः ऐसे नपुसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग में प्राप्त होने वाली दीर्घता का अभाव प्रदर्शित करना पड़ा है। जैसे:- दधिम-दहिं और मधुम् महुँ इत्यादि । प्रश्न:-मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर अन्स्य ह्रस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों लिखा गया है? उत्तर- इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य हस्व स्वर की दीर्घता 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर होती है; न कि द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर । जैसे:-गिरिम्-गिरि अर्थात पहाड़ को; धुद्धिम-बुद्धिं अर्थात् बुद्धि को तरुम-तरु अर्थात पूत को और धेनुम् धेणु अर्थात गाय को; इत्यादि । इस उदाहरणों में द्वितीय-विभक्ति-बोधक 'म्' 1 ".
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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