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________________ [ १३२ ] 0044864 * प्राकृत व्याकरण * *********0*$$$$$+VID. *******6620699666044444 एवम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमेसि और इमाण होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द इदम् के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रूप की प्राप्ति और ३-६९ से पष्ठी विभक्त के बहुवचन में संस्कृती प्रत्यय 'आप' के स्थान पर ग संप्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमेसि सिद्ध हो जाता है । में रूप से द्वितीय रूप- ( एप. = ) इमाण में 'इम' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३ १२ से प्राप्तांग 'हम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे बडी बहुवचन-प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'इमा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप प्रमाण भी सिद्ध हो जाता हैं । एतेषाम् संस्कृती बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप पि और एक होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' का लोप: १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-६१ सेविभक्ति के बहुत्रचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से देखि' प्रत्यय की प्राप्तिः तत्पश्चात 'डेसि' में स्थित 'जू' इत्संज्ञक होने से 'एन' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इस्संज्ञा होकर इस 'अ' वर का लोप; तत्पश्चात् शेष अंग 'ए' में उपरोक्त 'पति' प्रत्यय की संयोजना होकर एएसिं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (एतेषाम् ) एथा में 'एका' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार; तत्पश्चात सूत्र संख्या ३ १२ से प्राप्तांग 'एम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'जागे षष्ठी बहुवचन प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति ३६ से प्राप्तांग 'एला' (में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन) में संस्कृतोय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एआण मी सिद्ध हो जाता है । येषाम् संस्कृत षष्ठो बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जेर्सि और जाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२२ से मूल संस्कृत शब्ः 'य' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप ३६१ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसि' में स्थित 'छ' इत्संज्ञक होने से 'ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' को इस्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'जू' में उपरोक्त 'एसिं' प्रत्यय को संयोजना होकर प्राप्त प्रथम रूप जेसि सिद्ध हो जाता है। जाण की सिद्धि सूत्र संख्या में की गई है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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