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*प्राकृत व्याकरण
[३३७ ] 4430660000000040**mosporrontrosarok0RP00000000000000000000000 स्थान पर द्वित्व 'उ' की प्राप्ति; २६ से निव-माप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति; १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-११ से प्राकृन में प्राप्तांग हरिणा-द्वार में मातमो विभक्ति के एकमचान के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय = इ' के स्थान पर मानन में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'हारण ठाणे सिद्ध हो जाता है।
हरिणा संस्कृत के सम्बोधन के एकवचन का रूप है। इपका प्राकृत का हरिणत होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८१ मे 'ण' में स्थित दीर्थ स्वर 'मा' के स्थान पर आगे संयुक्त घर्ण 'क' का सद्भाव होने के कारन मेहद पर 'अ' को प्राप्ति और ३-३८ ले सम्बोधन के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'बो ' की प्राप्ति का वे काल्पक रूसे प्रभाव हो कर 'हरिणङ्क रूप सिद्ध हो जाता है।
जइ' अध्यय की पिद्धि सूत्र संख्या १४० मे को गई है। 'सि' क्रियापद-रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है।
हरिणाधिपम् संस्कृत के द्वितीया-विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिणाहिवं होता है । इसमें मूत्र-सख्या १-१८७ से ध्' के स्थान पर 'द' को आदेश-माप्ति: १-२३१ से 'प' के स्थान पा. 'व' की प्राप्ति; ३-से प्राकन में प्राप्त-शब्द 'हरिणाव' गहिनीया विभक्ति के एकवचन के फ अर्थ में 'म्' प्रत्यय को प्राप्त और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकनपर हरिणाहिवं सिद्ध हो जाता है।
न्यपेशयिष्यः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूपान्तर निवेसम्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२० से मूल संस्कृत धातु निवेशन' में स्थित तालव्य 'श के म्यान पर पाकन में इन्स्य 'म' की प्राप्ति; १-११ से सस्कृत धातु में स्थित अन्त्य हलन्त ध्यान य' का लोप ३-१२० से पाकुन में प्राप्तांग निस' में यातिपति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की मास्ति और ३.२ में प्राकृत में कियातिपति क अर्थ में प्राप्तांग निवतन्त' में प्रथमा विभक्त के एकत्रयन फ अर्थ में 'डायो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवेतन्ना' रूप फिट हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्रसंख्या १-१ में की गई।
असाहव्यथाः संस्कृत के पियातिपत्ति के अध में द्वितीय पुरुष के एकवचन का आत्मनेपदी क्रिया. पद का रूप है । इसका पान सप सहालो होता है। इसमें सूत्र सखया ४.२३९ से प्राकृत में प्राप्त हन्त. धातु 'सह' में विकरम प्रस्थय 'अ' की प्राप्ति, ३.१८० से प्रान में प्राप्तांग 'सा' में कियातिपत्ति के अर्थ में मत' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त सहन्त' में प्रथमा विभक्ति में एकत्र चन के अर्थ में 'डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'सहन्तो' सिद्ध हो जाता है।
चिम' अध्यय की सिद्धि स्त्र संख्या १८४ में की गई है।