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________________ [ २५७ ] * प्राकृत व्याकरण * 0000000 श्रम् अश्म= पह् अस्थि = जूं त्रयम् स्मः प्रमड़े है = हम हैं। यों अम और स्मः' के स्थान पर सूत्र-संवर ३-१४ के आदेशानुसार 'अस्थि' पत्र की आदेशप्राप्ति का सदुभाव होता है। 2000004400566666�***** शंका:- पहले सूत्र संख्या २ ७४ में आपने बतलाया है कि 'पदम शब्द के संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर तथा 'श्म, ष्म, स्म और अ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्ह' रूप की देश-प्राप्ति होती है' वदनुसार 'अस्मि किया रद में और 'स्म' क्रियापद में स्थित पर्दा 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश प्राप्ति होकर इष्ट पदांश म्ह' को प्राप्ति हो जाती है; तो ऐसी अवस्था में इस सूत्र संख्या ३-१४० को निर्माण करने की कौन सी आवश्यकता रह जाती है ? उत्तरः- यह सत्य हैं; परन्तु जहाँ विभक्तियों के संबंध में विधिविधानों का निर्माण किया जा रहा हो; वहाँ पर प्रायः माध्यमान अवस्था ही (सिद्ध को जाने वाली अवस्था हो ) अंगीकृत की जाती है। यादे विक्तियों से सम्बन्धित विधि-विधानों का निश्चयात्मक विधान निर्माण नहीं करके केवल व्यञ्जन एवं स्वर वर्णों के विकार से तथा परिवर्तन से सम्बन्धित नियमों पर ही अवलम्बित रह जॉयरों तो प्राकृत भाषा में जो विभक्तिबोधक स्वरूप संस्कृत के समान ही पाये जाते हैं; उनके विषय में में व्यवस्था जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायगी; जैसे कि कुछ उदाहरण इस प्रकार है: -- वृक्षेन=वच्छेणः वृक्षेषु सर्वयेः ये-जे; ते-ते; के= हे; इत्यादि इन विभक्तियुक्त पदों को साधनिका प्रथम एवम् द्वितीयपादों में वर्णित विकार से सम्बन्धित नियमों द्वारा भली भांति को जा सकती है; परन्तु ऐसी स्थिति में भी तृतीय पात्र में इन पदों में पाये जाने वाले प्रश्थयों के लिये स्वतन्त्र रूप से विधि-विधानों क निर्माग किया गया है; जैसे वज्रेण पत्र में सूत्र संख्या ३६ और ३-१४ का प्रयोग किया जाता है; पत्र में सूत्र संख्या ३०१५ का क्योग होता है; 'सब्बे, जे, ते के' प में सूत्र संख्या ३५८ का आधार हैं; यों यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल वर्ण-विकार एवं वर्ण-परिवर्तन से सम्बन्धित नियमोपनियमों पर ही अवलम्बित नहीं रहकर विभक्ति से सम्बन्धित विधियों के सम्बन्ध में सर्वथा नूनन तथा पृथक नियमों का ही निर्माण किया जाना चाहिये; अतएव आपकी उपरोक्त शंका अर्थ शून्य ही है। यदि आपकी शंका को सत्य माने तो विभक्तिस्वरूप बोधक सूत्रों का निर्माण 'श्रतारम्भणीय' रूप हो जायगा जो कि अनिष्टकर एवं विघातक प्रमाणित होगा । ग्रन्थकार द्वारा वृत्ति में प्रदर्शित मन्तव्य का ऐसा तात्पर्य है । 'एस' (सर्वनाम ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३१ में की गई है। अस्मि संस्कृत का वर्तमानकाल का तृतीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदोय अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप म्हि होता है। इस में सूत्र संख्या ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'अस् धातु में प्राकृतोय प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति और ३-१४० से प्राप्त रूप 'अ + मि' के स्थान पर 'म्हि रूप की सिद्धि हो जाती है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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