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________________ * प्राकृत व्याकरण [ २६३ ] *** 18606806 का लोप हो जाता है । तत्पश्चात् प्राकृत भाषा के अन्य नियमों के अनुसार शेष हुए धातु अंश 'ह' 'और 'ब' में कर्मणि-भावे प्रयोग अर्थक प्राप्त प्रत्यय 'ईस' तथा 'उच्च' की प्राप्ति होकर इष्ट काल संबंधित पुरुष-बोधक प्रत्ययों की समाप्ति होती है। इस नियम को अर्थात् सूत्र संख्या ३-१६० को पूर्वोक्क सूत्रसंख्या ३-१६० का अपचाद ही समझना चाहिये । तदनुमार इस सूत्र में वर्णित विधान पूर्वोक्त कमणि-भावे प्रयोग प्रत्यय और इज्ज' के लिये अपवादस्वरूप ही है; ऐसा मन्थकार का मन्तब्य है । उपधातुओं के कर्मणि मात्रे प्रयोग के अर्थ 'उदाहरण इस प्रकार हैं:- दृश्य दीसह = ( उससे ) देखा जाता है; उच्यते = वुबह = ( उससे ) कहा जाता है । संस्कृत का कमीण रूप है। इसका प्राकृत रूप दोस होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ १६१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश' में स्थित अन्त्य 'श' के आगे कर्मणि-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'डीस' का संप्राप्ति होने से तथा प्राप्त प्रत्यय डीस' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोग; १-१० से शेष धातु-वंश 'ट' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का आगे कर्मणि-प्रयोग अथक प्रत्यय 'ईस' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'ई' का सद्भाव होने के कारण से लोप, १-५ से शेष हलन्स धातु श्रंश 'द्' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईस' को संधि होकर मूल संस्कृतीय कर्मणि प्रायोगिक रूप 'दृश्य' के स्थान पर प्राकृत में कर्मणि-प्रयोग-अर्थक-अंग 'दीस' की संप्राप्ति और ३-०३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के अर्थ में सस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर सरूप सिद्ध हो जाता है । एकवचन उच्यते संस्कृत का अकर्मक रूप है । इमका माकूल रूप वुश्चइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-९६१ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' में स्थित अन्त्य न' के श्रागे भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय हु की संप्राप्ति होने से तथा प्राम प्रत्यय 'डच' में स्थित आदि 'डकार' इत्संज्ञक होने से लोप: १-१० से शेष घाटु अंश 'व' में स्थित अन्य स्वर 'अ' के आगे भावे -प्रयोग अथक प्रत्यय 'उच्च' की संप्राप्ति होने से इसमें स्थित आदि स्वर 'उ' का सदुभाव होने के कारण से लोग; १-५ से शेष हलन्त धातु श्रंश 'व' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'उच्च' की संधि होकर मूल संस्कृतीय भावे प्रायोगिक रूप 'उष्य' के स्थान पर प्राकृत में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'ख' की संप्राप्ति और ३-१:६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय ते' के स्थान पर प्रान में '३' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर वह रूप सिद्ध हो जाता है । ३-१६२ ।। सी ही ही भूतार्थस्य ॥। ३–१६२ ॥ भृतेर्भे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः तस्य स्थाने सी ही हीय इत्यादेशा भवन्ति ॥ उत्तरत्र व्यञ्जनादीश्वविधानात् स्वरात्सादेवायं विधिः ॥ कासी 1 काही | काही | श्रकार्षीत् । मकरोत् । चकार वेत्यर्थः । एवं टासी । ठाही ठाही | था । देविन्दो इणमन्त्री इत्यादी सिद्धावस्थाश्रयणात् ह्यस्तन्याः प्रयोगः ॥ I
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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