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________________ [ ५१. * प्राकृत व्याकरण * -0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद' सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'ति' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'तउ अथवा तुझ अथवा तु, ऐसे तीन पर-रूपों को आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-त्वत् = तउ अथश तुजा अथवा तुध-तुझसे तेरेसे ।। इसी प्रकार से 'युष्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में षष्टी विभरिक के एकवचन के प्रत्यय 'स' का संयोग होने पर इसी प्रकार से मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'स' दोनों हो के स्थान पर वैसे ही 'तर, अथवा तुम अथवा तुध्र' ऐसे समान रूप से ही इन तीनों पद-रूपों की नित्यमेव आदेश प्राग्नि हो जाती है । जैसे:-तब अथवा ते = तउ अथवा तुझ अथवा तुध्र-तेरा, तेरो, तेरे ( एकवचन के अर्थ में तुम्हारा, सुम्हारो, तुम्हारे )। वृत्ति में दिये गये सदाहरणों का अनुवाद इम प्रकार से है:-- स्वत भवतु अथवा भवेस पागतः =(१) तउ होन्ताउ पागदो- (0) तुन्झ होन्तत प्रागदो(३) तुध्र होन्तउ धागदा - तेरे से अथवा तुझसे आया हुमा (अथवा प्राप्त हुआ ) होवे ॥ 'इस्' प्रत्यय से सम्बन्धित दिश-पात १५-रूपों के दाहरण गाया में दिये गये हैं; तदनुसार गाथा का अनुवाद संस्कृत:--तब गुण -संपदं तव मतिं तव अनुत्तरी क्षान्तिम् ।। यदि उत्पद्य अन्य-जनाः मही-मंडले शिक्षन्ते ॥१॥ हिन्दी:-( मेरी यह कितनी सत्कट भावना है कि ) इस पृथ्वी महल पर उत्पन्न होकर अन्य पुरुष यदि तुम्हारी गुण-संपचि को, तुम्हारी बुद्धि को और तुम्हारी असाधारण अत्युत्तम चमा को सीखते हैं-इनका अनुकरण करते हैं। तो यह कितनी अच्छी बात होगो १ ) ॥ यो गाथा में 'लव' पदरूप के स्थान पर क्रम से तउ तुझ और सुध्र' श्रादेश-प्राप्त पद-रूपों का प्रयोग किया गया है। ॥४-३७२॥ भ्यसाम्भ्यां तुम्हह ॥ ४-३७३ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो घस अाम् इत्येताभ्याम् सह तुम्हह इत्यादेशो भवति ।। तुम्हह होन्तउ पागदो | तुम्हई केरउं धणु ।। अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद् मर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी-विभक्ति बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय यस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हह' ऐसे पद-रूप की निस्थमेव आदेश प्राप्ति होती है । जैसे:-युम्मत तुम्हहं -तुम से-आपसे । इसी प्रकार से इसो सर्वनाम शब्द 'युष्मत' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यत' का और पटो विभक्ति के
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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