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________________ * प्राकृत व्याकरण * [ ४१७ ] mooooooooooかかかかかかり00かかかかかかり000000004000000:00:00:00000000000000000000 उत्तरः-प्राकृत-भाषा का रचना-प्रवाह हो ऐमा है कि अकारान्त धातु और काल-बाधक प्रत्ययों के बीच में कभी कभी आगम रूप से 'अकार' स्वर को प्राप्ति नहीं होती है और इस लिये अकारान्त धातुओं को छोड़ कर अन्ना मान्न भातुओं को मिले ही विकल्प से 'अकार' रूप स्वर की आगम-प्राप्ति का विधान किया गया है। जेसे:-चिकित्सति का 'चिच्छर' ही प्राकृत-रूपान्तर होगा; न कि 'चिइन्ह' होगा। इसी प्रकार से जुगुप्मति का प्राकृत रूपान्तर 'दुगुच्छई' ही होगा, न कि 'दुगुच्छअइ' होगा। दोनों उदाहरणों का हिन्दी अर्थ क्रम से इस प्रकार है:- (१) वह दवा करना है और (२) वह घृणा करता है, वह निंदा करता है । ४-२४० ॥ चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो हृस्वश्च ।। ४-२४१ ॥ च्यादीनां धातूनामन्ते ण कारागमो भवति, एषां स्वरस्य च हृस्वी भवति ॥ चि । चिणइ | जि । जिणइ । शु | सुरणइ । हु । हुणइ । स्तु । थुगाइ । लू । लुणइ । पू । पुणइ । धुम् । धुणइ ॥ बहुलाधिकारात् कालत् विकन्यः। उच्चि गइ । उच्चे। जेऊण । जिणिऊण । जयइ । जिणइ ॥ सोऊण । सुणिऊण ।। अर्थः-(१) चि =(चय )=इकट्ठा करना, (१) जि= (जय ) = जीतना, (९) U = सुनना, (४) हु- हवन करना, (५) स्तु =स्तुति करना, (६) लू लगना, छेदना, (७) पू= पवित्र करना, और (८)धू-धुनना-कंपना 'इन संस्कृनीय धातुओं के प्राकृत-करान्तर में काल-बोचक प्रत्ययों को जोड़ने के पूर्व 'णकार' यमनाक्षर को भागम-प्रानि होती है तथा धातु के अन्त में यदि दीर्घ स्वर रहा हुआ हो तो उसको ह्रस्व स्वर की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार की स्थिति से इनका प्राकृत- रूपान्तर यो हो जाता है:-(१) चिण, (२) जिण, (३) सुण, (४) हुण, (५) थुप, (६) लुण, (७) पुण, और (८) धुण, क्रियापदीय उदाहरण क्रम से यों है:-(१) चिनीति = विण-वह इकट्ठा करना है, (२) जयतिजिण = वह जीतता है, (३) हा जाति = सण-वह सुनता है, (४) जुहोतिहणइ - वह हवन करता है, (५) स्तोति-युगइ = वह स्तुति करता है, {) लुनाति लुगइ = वह लगता है, वह काटना है, (७) पुनातिन्युपाई - वह पवित्र करता है और (८) धुनाति भुगइ = वह धुनता है, यह कंपता है। _ 'बहुलम' सूत्र के अधिकार से कहीं कहीं पर प्राकृत रूपान्तर में उक्त धातुओं में प्रामव्य ‘णकार' ध्यानाक्षर को पागम प्रानि विकल्प से भी होती है । जैसे:-उच्चिनोति उचिणइ अथवा उच्च = यह (फूल आदि को तोड़कर) इकट्टा करता है । जित्वा = जेऊण अथवा जिणिऊण = जित करके, विजय प्राप्त करके । श्रुषासोऊग अथवा मुणिऊग = सुन करके, अत्रया करके । इन उपरोक्त उदाहरणों में 'णकार' व्यञ्जनाक्षर की भागम-प्रानि विकल्प से हुई है । यो अन्यत्र भी जान लेचा चाहिये।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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