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________________ 14040046 * प्रिर्योदय हिन्दी व्याख्या सहित 00400000 किमो डिहे वा ॥ ४-३५६ ॥ पशे किमो कारान्तात् परस्य उसे डिहे इत्यादेशो वा भवति || जड़ तो तुट्टर नेहडा मई सुहुं न वि तिल-तार || तं किहे वकेडिं लोअहिं जोइज्जउं सयवार ॥ १ ॥ अर्थ :- अपभ्रंश भाषा में 'किम' सर्वनाम के श्रङ्ग रूप 'क' शब्द में पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डि = इहें प्रत्यय रूप को आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। डिहे' प्रत्यय में 'हकार' इत्-संज्ञक होने के अङ्ग रूप 'क' के अन्य 'म' का लोप होकर शेष अंग रूप हलन्त 'क' में 'इहे' प्रत्यय की संयोजना की जानी चाहिये । वैकल्पिक पक्ष होने से पचान्तर में 'काहां और कहां' रूपों की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण के रूप में गाथा में 'कि' पद दिया गया है। जिसका अर्थ है:--- किस कारण से | पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं: [ ४६७ ] 000000004444 संस्कृत: - यदि तस्याः त्रुट्यतु स्नेहः मया सह नापि तिलवार : (१) तत् कस्मात् वक्राभ्याम् लोचनाभ्याम् दृश्ये (अहं) शतवारम् || हिन्दी:- यदि उसका प्रेम मेरे प्रति टूट गया है और प्रेमका अंश मात्र भी मेरे प्रति नहीं रह गया है तो फिर मैं किस कारण से उसके टेढ़े टेढ़े नेत्रों से सैकड़ों बार देखा जाता हूँ ? अर्थात तो फिर मुझे वह बार बार क्यों देखना चाहती है ? || ४-३५६ ।। ङो हिं ॥ ४-३५७ ॥ अपभ्रंशे सर्वादेरकारानात् परस्य ङ े: सप्तम्येक वचनस्य हिं इत्यादेशो भवति ॥ जहिं कपिज्ज सरिय सरू छिज्जर खग्गिया खरगु ॥ भद्दवउ || माहउ सरउ || तहिं तेइ भड-बड निर्वाहि कन्तु पयासह मम् ॥ १ ॥ एकदि ख सावणु श्रहिं महिल- सत्यरि गण्डे-त्थले अंगिहिं गिम्ह सुहच्छी - तिल-वणि मम्ग तहे मुद्धहे मुह-पंकड़ भावासिउ सिमिरू || २ || हिचडा फुट्टि तडत्ति करि कालक्खेवें काई ॥ देवख ं हय - विहि कहिं ठवर पई विणु दुक्ख-सयाई ॥ ३ ॥ सिरु ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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