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________________ * प्राकृत व्याकरण [ २८७ } 00000000000001 प्राकृतमंहसे और इस में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'राष्ट्र' के स्थान पर 'त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्राकृत में कम से प्राप्तांग 'हसेन्त और हसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ढो = श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृत पद इसेन्तो और हसन्ती सिद्ध हो जाते हैं। जयति संस्कृत का अकर्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप जयह होता है। इसमें सूत्र संख्या-३-९३६ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्त धातु 'जय' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतिीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में '५' प्रयय की प्राप्ति होकर जयह रूप सिद्ध हो जाता है । ३-९४८ ज्जा - ज्जे ॥ ३ - १५६ ॥ ज्जा ज्ज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति ।। हसेज्जा । इसेज्ज || अत इत्येव । होज्जा । होज्ज || अर्थ:--सूत्र-संख्या ३- १७७ के निर्देश से धातुओं के अन्त में प्राप्त होने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत् काल के, श्राशार्थक के और विध्यर्थक के सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'जा और ज' के परे रहने पर अकारान्त-धातुओं के अस्वस्थ 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे:- हसन्ति- हसिष्यन्ति - हसन्धु-हसेयुः = हसेना अथवा हसेज= वे हँसते हैं - हँसेगे - हँसे इत्यादि । यहाँ पर 'हस' धातु अकारान्त है और इसमें वर्तमान आदि लकारों में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जान' की प्राप्ति होने से 'इस' के अन्त्यस्थ 'अकार' के स्थान पर 'एकार' की बिना किसी वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हो गई है। यों आदेशग्राम 'जान' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर अन्य अकारान्त धातुओं में भी अन्त्य 'अ' के स्थान पर नित्यमेव 'एकार' की प्राप्ति का विधान ध्यान में रखना चाहिये । प्रश्न: - 'अकारान्त-वातुओं' के लिये ही ऐसा विधान क्यों बनाया गया है ? उत्तरः- जो प्राकृत धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं उनमें आदेश प्राप्त 'ना ज्ज' प्रत्ययों का सद्भाव होने पर भी उन अन्त्य स्वरों के स्थान पर अन्य किसी भी स्वर की देशप्राप्ति नहीं पाई जाती है; इसलिये केवल अकारान्त धातुओं के लिये हो ऐसा विधान बनाने की आवश्यकता दी है। जैसेः - भवन्ति भविष्यन्ति भवन्तु भवेयुः = होज्जा श्रथवा हवे होते हैं-वे होंगे-षे होवें इस उदाहरण में 'हो' धातु श्रीकाशन्त है; इसी लिये आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ज्जाज' का समाष होने पर भी अकारान्त धातुओं के अन्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति के समान इस 'हो' धातु के अन्दयस्थ 'आकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। पी चन्तर-भेद यह प्रदर्शित
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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