SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *प्राकृत व्याकरण [ २४७] www 6 -9% 0% 6666 * *$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-१३४ की वृत्ति से संस्कृतीय पद में स्थित पञ्चनी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करने की प्रदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-१२ से प्राप्तांग 'रक्तम' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के आगे षष्ठी विभक्ति के बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दी स्वर 'श्रा' को प्राप्ति; यो प्राप्ताय रक्खमा' में ३-६ से उपरोक्त विधानानुसार षष्ठी विर्भात क बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अाम् के स्थान पर प्राकृन में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२४ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप रक्खसाणं सिद्ध हो जाता है। उत्पद्यन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पाजन्ते होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७१ से प्रथम हलन्त भ्यञ्जन '' का लोप; २.८६ से लोप हुए हलन्त व्यञ्जन 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति ३.२४ से संयुक्त बजन 'य' को 'ज' की प्राप्ति, २.८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ल' की प्राप्ति और ३-१४५ से प्राप्तांग 'उपज' में वर्तमान काल के प्रथम पुरुप के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति हीकर प्राकन क्रियापद का रूप उपजते सिद्ध हो जाता है। का हृदय-सागरे संस्कृत का समासात्मक सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इम का प्राकृत प 'कहाश्रय-सायरे' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोः १-१२८ से '' के स्थान पर 'इ' का पानि; १-१७७ से 'दु' का लोप; १-१७७ से 'ग' का लोपः १-१८० से लोप हुए 'ग' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति; बों प्राain 'कइ- हिय-सायर' में ३ ११ में सप्तमी विभक्ति के एकत्र वन में संस्कृतीय प्राप्तण्य प्रत्यय ' डिई' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में हनन्त 'इ' इस्य नंबर होने से प्राप्तांग मूल शब्द 'कइ.हि ग्रसायर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का लोर हार शेष हजम्न अंग में उपरोक्त 'द' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सप्तम्यन्त रूप कड-हिअय-सायरे पिर हो जाता है। काव्य-रस्मानि संस्कृत का समास :मक प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त नपुसक जिंगात्मक संज्ञा का रूप है। इसका प्राकृत कम रखमाई होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; २.८ से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'घ' को द्विस्व 'व्य' की; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोष; ३.१०१ से लोप हुए 'तू' के पश्वास शेष रहे हुए म' के पूर्व में 'अं' की पागम रूप प्राप्ति; १-१८० से आगम-रूप से प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति; वों प्राप्तांग-कच. रयण' में ३-२६ से प्रथमा विभक्त के बहुवचन में नपुंसक लिग में अन्त्व हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की मारित होते हुए संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यक्ष 'जस' के स्थान पर प्रारूत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माकृत-पद पध्व-रपणा सिद्ध हो जाता है। 'कोपिण' संख्यात्मक विशेषण-पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy