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________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # 'वि' और 'न' दोनों अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। प्रभवतः संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का द्विवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पहुपिरे होता है। इसमें सूत्र संख्या २२७६ से 'र' का लोप ४-६३ से धातु श्रंश 'भू'= 'भ' के स्थान पर प्राकृत में 'हुप्प' आदेश की प्राप्तिः १-१० से प्राप्त धातु-अंग 'पहु' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ' होने से लोय; तत्पश्चात् ३ २३० से प्राप्त हलन्त धातु 'पप्पू' में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष 名 बहुवचन में प्राकृत में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पहारे सिद्ध हो जाता है । [ २४८ ] 300000 46605460060000 संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का द्विवचनात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बाहू ही होता है। इस में सूत्र- संख्या ३ १३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति ३-१२४ के निर्देश से चकारान्त शब्दों में भी अकारान्त शब्दों के समान ही विभक्ति-बोध-नव्ययों की प्राप्ति; नदनुसार ३-४ से प्रथमा विमति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' को प्राक्त-शब्द 'बाहु' में प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्रथमा के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' का सदुभाव होने से बाहु' शब्दान्त्य ह्रस्व श्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बाहू रूप सिद्ध हो जाता है । विक्षुभ्यन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विच्छुहिरे होता है। इसमें सूत्र मंख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'बिन्नुभ' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'छ' की द्विश्व 'छ छ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्तिः ९-१८० से 'भ् के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ४ २३५ से प्राप्त हलन्त धातु 'विच्ह' में विकरण प्रत्यय 'थ' की प्राप्तिः ९-१० से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' का पुनः श्रागे प्रत्ययात्मक 'इरे' को 'इ' होने से लोपः तत्पश्चात् ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में उपरोक्त रीति से प्राप्त 'बि' धातु में 'हरे' प्रत्यय का प्राप्ति होकर प्राकृत रूप विचदुहिरे सिद्ध हो जाता है। शुष्यति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप सूमइरे है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से संस्कृतिीय मूज़ धातु 'शुष्' में स्थित दोनों प्रकार के 'श' और 'घ' के स्थान पर क्रम से दो दन्त्य 'स' की प्राप्तिः ४-२३६ से आदि ह्रस्व स्वर '' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति ४-२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'सूस' में त्रिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१४२ की वृद्धि से एक वचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग करने को मान्यता का निर्देश; तदनुसार ३-१४२ प्राकृत धातु 'सूप' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के अर्थ में एकत्रचन के स्थान पर बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप सूसरे सिद्ध हो जाता है। : ग्राम-कर्म संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का एक वचनान्त पुंल्डिंग का रूप है। इसका देशज प्राकृत का रूप गाम-चिक्खल्लो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से माम' में स्थित 'र' व्यञ्जनका
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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