SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २४२ ] 4444487 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या संहित 6000094040004686000466646 6♠♠***** भेद पाया जाता है, प्राकृत भाषा में बैमा नहीं है; तदनुसार प्राकृत भाषा में काल- बोधक एवं पुरुष बोधक प्रत्ययों की श्रेणी एक ही प्रकार की है। संस्कृत समान " परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय " प्रत्ययों को भिन्न भिन्न श्रेणी का प्राकृत में अभाव ही जानना । इसी प्रकार से संस्कृत में जैसे दश प्रकार के लकार होते हैं; वैसे प्रकार के लकारों का भी प्राकृत मे प्रभाव है; किन्तु प्राकृत भाषा में वर्तमान-काल, भूतकाल भविष्यकाल आज्ञार्थक, विधि- अंक और क्रियातिपत्ति अर्थात लृङ -हकार यो कुल छह लकारों के प्रत्यय ही प्राकृत में पाये जाते है। सूत्र संख्या ३-९४८ में प्रज्ञार्थक लकार के लिए 'पञ्चमी' शब्द की प्रयोग किया गया है और ३-१६५ में विधिलिङ के लिए सप्तमी शब्द का प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष से एक बचन के प्रत्ययों का निर्देश किया गया है; नदनु सार संस्कृत भाषा में परस्मैपदीय और आत्मनेपदीय रूप से प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय नि' और 'ते के स्थान पर प्राकृत हो "इच = " और "एच् ए" प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:दसति = हमइ और हसवता है अथवा वह हनी है। वे वेत्र और वह काँपता है अथवा वह काँपती है । उपरोक्त "इच् और एच् प्रत्ययों में जो हलन्त चकार लगाया गया है; उसका यह तात्पर्य है कि आगे सूत्र संख्या ४-३१८ में इनके सम्बन्ध में पैशाची भाषा की दृष्टि से विशेष स्थिति वनलाई जाने वाली है; इसीलिए हलन्त चकार की योजना अन्य रूप से करने की आवश्यकता पड़ी है। "हस" क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९८ में की गई है। हसति संस्कृत का बर्त मान काल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप हए होता है। इस में सूत्र संख्या ३ १३६ से संस्कृतीच प्रत्यय "ति" के स्थान पर प्राकृत में 'तु" प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसए रूप सिद्ध हो जाता है। संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथम पुरुष का एकवचनान्त आत्मने पदीय क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृन रूप वेंवइ और वेबए होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२१ से '१' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१३६ से संस्कृती प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और '' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों प्राकृतीय क्रियापदों के रूप देव और ये सिद्ध हो जाते हैं । ३-१३६॥३ द्वितीयस्य सि से ॥ ३-१४०॥ त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य त्रयस्य संबन्धिन भाद्य वचनस्य स्थान सिसे इत्येतावादेशौ भवतः ॥ हससि । इससे । देवसि । वेष से || I अर्थः- संस्कृत भाषा में द्वितीय पुरुष के एक वचन में वर्तमान काल में प्रयुक्त होने वाले परस्मैपदीय और थम्मने पदीय प्रत्यय मि' तथा 'से के स्थान पर प्राकृत में 'सि' और 'से' प्रत्ययोंकी श्रादेश प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण इस प्रकार हैं: - हमसिहसा और इससे तू हंसता है अथवा तू हंसती है | पसे देवसि और वेत्र से = तू काँपता है अथवा त काँपती है। ←
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy