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________________ * प्राकृत व्याकरण . [ ४३३ ] ........moronto+000000000+orostrartoorserreterrestrinterroorker.... प्रश्नः-वाक्य के आदि में अर्थात प्रारभ में रहें हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' को आदेशप्राति नहीं होती है। ऐमा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-चूकि शौर सनी-भाषा में ऐसा रचना-प्रवाह पाया जाता है कि संस्कृत भाषा को रचना को शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करते हुए वाक्य के आदि में यदि 'तकार व्यञ्जन रहा हुआ हो तो जसके स्थान पर 'दकार' व्यञ्जन की प्रादेश प्राति नहीं होती है । जैसः–तथा कुरुथ यथा तस्य राज्ञः अनुकम्पीया भवामि ( अथवा भवेयम् ) = तथा करेध जया तस्स राइणी अणुकम्पणीमा भोमि = पाप वमा प्रयत्न) करते हैं, जिससे मैं उम राजा की अनुकम्पा के योग्य दिया को पात्राणो) होतो हूं (अथवा हाऊ)। इस उदाहरण में 'तथा' शब्द में स्थित 'तकार' वाक्य के यादि में आया हुश्रा है और इसो कारण से इस 'तकार' के स्थान पर 'कार' म्न्यानादर को आदेश प्रानि नहीं हुई है। यों सभी स्थानों पर वाक्य के श्रादि में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाभर के सम्बन्ध में इस संविधान को ध्यान में रखना चाहिये। प्रश्न:--'एद यथना के यादि में रहे हुए 'तकार' को भी 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा भी क्यों कहा गया है ? उत्तरः- -शौरसेनी-भाषा में ऐसा 'अनुबन्ध अथवा संविधान भी पाया जाता है, जब कि पर के आदि में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'कार' को श्रादेश-प्राप्ति नहीं होती है जैसे:--तस्य-सस्स उमका । ततःतहो । इत्यादि। इन पदों के आदि में रहे हुए 'तकार' अक्षरों को 'दकार' अक्षर की प्रादेश प्राति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। प्रश्न:-'संयुक्त रूप से रहे हुए' तकार को भी दकार की प्रानि नहीं होती है, ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर:-शौरसेनी भाषा में उसी 'सकार' को 'दकार' का आदेश प्राप्ति होता है, जो कि हलन्त न हो; तथा किसा अन्य व्यकजनाक्षर के साथ में मिला हुआ न हो; यो 'पूण स्वतन्त्र अथवा अयुक्त नकार के स्थान पर हं! 'दकार' की श्रादेश-प्राप्ति होतों हैं। ऐसा ही संविधान शौरसेनो भाषा का समझना चाहिये । जैसः-मत्तःम मचो - मद वाला अर्थान मतवाला। आयपुत्रः = अध्यउत्तो- पति, भ्रता, अथवा खामो का पुत्र । हे सखि शकुन्तले-हला सउन्तले! = हे सहि शकुन्तल ; इत्यादि । इन उदाहरमों में अर्थात 'मत्त, प्रार्य पुत्र, और शकुन्तला' शब्दों में 'तकार' सयुक्त रूप से-( मिलावट से)रहा हुआ है और इसी लिये इन सयुक्त 'तकारों' के स्थान कर 'दकार' व्यन्जनाक्षर को श्रादेरा-प्राप्ति नहीं हो सकती है । यही स्थिति सर्वत्र ज्ञातव्य है। त्ति में 'असम्माविद-सकार' ऐसा उदाहरण दिया हुआ है। इसका संस्कृत रूपान्तर 'असम्भावित सत्कार' ऐसा शेता । इस उदाहरण द्वारा बताया गया है कि 'प्रथम सकार' के स्थान पर ती
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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