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________________ १ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 00000... [८] अर्थः- अपभ्रश भाषा में शब्दों के लिंग के सम्बन्त्र में दोषयुक्त व्यवस्था पाई जाती है। तदनुमार पुल्लिंग शब्द को कभी कभी नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया जाता है और कभी कभी नपुंसकलिंग वाले शब्द को पुल्लिंग के रूप में लिख दिया जाता है; इसी प्रकार से बीलिंगवाले शब्द को भी प्रायः नपुंसकलिंग के रूप में प्रदर्शित कर दिया जाता है और नपुंसकलिंगवाले शब्द का भी स्त्रीलिंग के रूप में प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है; पायः होने वाली इम व्यवस्था को प्रथकार ने वृति में 'व्यभिचारी' व्यवस्था के नाम से कहा है । इम दोष-युक्त परिपाटी को समझाने के लिये वृत्ति में जो उदाहरण दिये गये हैं; उनका अनुवाद क्रमशः इस प्रकार से है: (१) संस्कृतः - गजानां कुम्भान् दारयन्तम् राय-कुम दारन्तु हाथियों के गढ स्थलों को चीरते हुए को । यहाँ पर 'कु' शब्द को नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया है; जबकि वह शब्द पुलिंग है । (२) संस्कृत — अाणि लग्नानि पर्वतेषु पथिकः आरटन् याति ॥ यः एषः गिरिसनमनाः स किं धन्यायाः घृणायते ||१|| हिन्दी : - पर्वतों के शिखरों पर लगे हुए अथवा झुके हुए बादलों को ( लक्ष्य करके ) यात्री यह कहता हुआ जा रहा है कि 'यह मंत्र ( क्या ) पर्वतों को निगल जाने की कामना कर रहा है अथवा (क्या) यह उस सौभाग्य-शालिनी नायिका से घृणा करता है। क्योंकि इस वन-श्याम मेघगला फी देखने से उस नायिका के वित्त में काम वासना तीव्र रूप से पीड़ा पहुँचाने लगेगी ) इसमें मेषवाचक शब्द 'अब्भ' को पुल्लिंग के रूप में लिखा है; जबकि वह नपुंसकलिंगडाला है (३) संस्कृतः पादे विलग्नं अत्रं शिरः स्रस्तं स्कन्धात् ॥ तथापि कटारिका हस्तः बलिः क्रियते कान्तस्य ॥२॥ हिन्दी:- कोई एक नायिका अपनी सख्रि से अपने प्रियतम पति को र क्षेत्र में प्रदर्शित वीरत के सम्बन्ध में चर्चा करती हुई कहती है कि- 'देखो ! युद्ध करते करते उसके शरीर की आन्तड़ियाँ बाहिर निकल कर पैरों तक जा लटको है और शिर धड़ से लटक सा गया है; फिर भी उसका हाथ कटारी पर ( छोटी सी तलवार पर) शत्रु को मारने के लिये लगा हुआ है; ऐसे वीर पति के लिये मैं बलिदान होती हूँ ।' इस गाथा में 'अन्डो' शब्द को श्रीलिंग के रूप में बतलाया है; जबकि यह नपुंसकलिंगवाला है ||२|| (४) संस्कृत: - शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखा: मोटयति ॥ तथापि महाद्रुमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ हिन्दी:- देखो ! पक्षीगण महावृक्ष की सर्वोच्च शाखाओं पर बैठते हैं; उनके फलों को रुषिपूर्वक खाते हैं तथा उनकी डालियों को तोड़ते हैं-मरोड़ते हैं; फिर भी उन महावृक्षों को कितनी ऊंची उदारता है कि वे न तो उन पक्षियों को अपराधी ही मानते हैं और न उन पक्षियों के प्रति कुछ भी हानि
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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