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________________ d [२६८] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ++++++&++++++++++++++++++++++++++ ++ +++++++++++++++++++be पाचक संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'स' के समान ही ग्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्रापि, १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'हामिश्र' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त व्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ष पर अनुम्बार की प्राप्ति होकर भुत-कृदन्तीय प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत-पद हासिभ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( हासितम्) हसावि में सूत्र-संख्या-३.१५. से मूल प्राकृत-धातु 'हम' में प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'कात्रि की प्राप्ति प्राप्तांग 'हसावि' में शेष-मार्धानका प्रथम रूप के समान ह । सूत्र-संख्या ४-४४८६१-१७७,३-२५ और १-२३ द्वारा होकर विनीय रूप हसायिभं भी सिद्ध हो जाता है। क्षामितम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है । इम के प्राकृत-रूप खामिश्र और खमावि होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत-धातु क्षम' में स्थित 'ज्ञ' व्यवन के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति, ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम में स्थित श्रादि स्वर 'श्र' के स्थान पर आगे भूत कदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'श्रा' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'खाम' में स्थित अन्त्य हलन्त व्याजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्तांग 'खाम' में उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भून कृदन्तवाचक प्रस्थय 'त' का मभाव होने से 'इ' को प्राप्ति; ४.४४८ से प्राप्तांग 'खामि' में भूत-कृदन्तवाचक संस्कृतीय प्राप्तग्य प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय को प्राप्त; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यन्जन 'त' का लोप; ३.२४ से प्राप्तांग खामि' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृनीय प्रारनव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वणं पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कदन्तीय प्रेरणार्थक-भावसूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत्तीय प्रथम पद खामिअं सिद्ध हो जाता है । खमावि में मूल प्राकृत अंग 'खम्' की प्राप्ति उपरोक प्रथम रूप के समान और ३-१५२ से मूल-प्राकृत धातु 'खम्' में प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'श्रावि' की प्राप्ति; इइ प्रकार प्रेरणार्थक रूप से प्रामांग समाधि' में शेष सावनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ४-४५८; १.१७७, ३-२५ और १.२३ द्वारा होकर द्वितीय रूप रखमावि भी सिद्ध हो जाता है। कार्यते संस्कृत प्रेरणार्थक रूप है । इसके प्राकृत रूप कारीआइ, करावीअइ, कारिजा और कराविजड होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३.१५३ से मूल-प्राकृत-धातुकर में स्थित श्रादि स्वर 'अ' के म्यान पर आगे प्रेरणार्थक भाय-सूचक प्रत्यय के सद्भाव फा ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'मा' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे प्राप्त कर्मणि-वाचक-प्रत्यय 'ई' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का सदभाव होने से लोप; ३.१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कर्मणि-प्रयोग
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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