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________________ * प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित * roorrow00000000000000000rpoernvr0000000000strorse.n0600000000000000 कारले संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग का रुप है। इसका प्राकुन रूप कालोप है ! इस संग्या को वृत्ति से सप्रमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदश-प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से नृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टाश्री स्थान पर प्राकृत में 'रण' प्रत्यय का प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मला 97वृत्त शब्द 'पाल में स्थित अन्य वर्ण 'ल' के अन्त्य 'श्र' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ..७ से प्राप्त प्राकृत रुप कालंण में स्थित अन्य वणं 'ज' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कालणे रूप सिद्ध हो जाता है। 'तेणे' मर्वनाम रूप की सिद्धि ऊपर इसी सूत्र में की गई है। समये संस्कृत को सममी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्रारुन रूप समार है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'समय' में स्थित 'य' व्यञ्जन का लोप; ३-१३७ की वृत्ति सं सममी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की श्रादेश-श्राप्ति; तदनुसार ३.६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा-प्रा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्रामि; ३-१४ से नृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'समन' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १.२७ से प्राप प्रकट कर में स्थित अन्त्य वर्ण 'या' पर अनुम्बार की प्राप्ति होकर समएणं रूप सिद्ध हो जाता है। चाशतिः संस्कृत का प्रथमान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है इसका प्राकृत रूप चउबीसं है । इसा सूत्र-संर या १.६४७ से प्रध्यम 'न व्यजन का लोप;२-७६ से रेफ रूप 'र' व्यजन का लोप; FF में 'वि' ६ में fer हम्ब इवे स्थान पर इसी सूत्रानुसार अन्तिम वर्ण ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोग; १.२६० से 'श' कथान पर 'स' की प्रारित ३-५३७ की वृत्ति से प्रथमा-विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने आदेश-प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर प्राकत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त पत्ययम'के स्थान पर प्राप्त प्रोकत शान 'चउर्षास' में स्थित अन्य वणं 'स' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चउपसिं सिद्ध हो जाता है । 'पि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १४१ में की गई है। जिनवराः संस्कृत का प्रथमो विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप शिणवरा होता है । इसमें सूत्र-संख्या - से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति ३.१२ से प्राप्त प्राकृत शब्द-'जिणवर में स्थित अन्त्य इस्त्र वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीघ स्वर 'आ' को नास्ति और ३-४ से प्रा: प्राकृत शब्द जिणपरा
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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