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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित : [ ५६१ ] 000000000000000000000000000000000000000000000000000 (६) एकैकं यद्यपि पश्यसि हरिः सुष्ठ सयादा । तथापि दृष्टिः पत्र कापि राधा, कः शक्नोति संवरीतु नयन स्नेहन पर्यस्ते ॥५॥ हिन्दी-यद्यपि हरि ( भगवान श्री कृष्ण ) प्रत्येक को अकछी तरह से और पूग्ण श्रादा के साथ देखते हैं तो भी उनको दृष्टि ( नजर । जहाँ कहीं पर भी गधा-गनी है, वहीं पर जाकर जम जाती है। यह सत्य हा है कि प्रेम से परिपूर्ण नेत्रों को ( अपनी प्रियतमा से ) दूर करने के लिये-( इटाने के लिये ) कौन ममर्थ हो पकना है ? इस अाभ्रंश-काव्य में 'दृष्टि' के स्थान में 'द्रोहि' शब्द लिखा गया है ॥५॥ संस्कृतः-(७) विमवे कस्य स्थिरत्वं ? योरने काग्र गर्वः । स लेखः प्रस्थाप्यते, यः लगति गाढम् ।६।। हिन्दी:-धन-संपत्ति के होने पर भी किपका ( प्रेभाकर्षण ) स्थिर रहा है ? और यौवन के होने पर भी प्रेमाकर्षण का गर्म किसका स्थाई रहा है ? इसलिये वैसा प्रेम-पत्र भेजा जाय, जो कि तत्काल ही प्रगाढ़ रूप से निश्चित रूप से-हृदय को हिला सके हस्य को श्राकर्षिन कर सक; ( ऐसा होने पर वह प्रियतम शीव ही लोट पायेगा)। यहाँ पर " गाड" के अर्थ में " निरूचट्ट, " शब्द लिखा गया है॥६॥ संस्कृत(८)-कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः ? कुत्र बहीं कुत्र मेषः ! दर स्थितानामपि सज्जनानां भवति असाधारण : स्नेहः । ७१ हिन्दी:--कहाँ पर (कितनी दूरी पर) चन्द्रमा रहा हुआ है और समुद्र कहाँ पर अवस्थित है ! ( तो भी समुद्र चन्द्रमा के प्रति ज्वार-भाटा के रूप में अपना प्रेम प्रदर्शित करता रहता है। इसी प्रकार से मयूर पक्षी धरती पर रहता हुधा मी मेष को ( बादल को)-देखकर के अपना मधुर वाणा अलापने लगता है। इन घटनाओं को देख करके यह कहा जा सकता है कि भति दूर रहते हुए भी सजन पुरुषों का प्रेम परसर में असाधारण अर्थात अलौकिक होता है। इस माथा में " असाधारण " शब्द के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अम्लु " शब्द को व्यक्त किया गया है ।। ॥ संस्कृत (६)-कुञ्जरः अन्येषु तरुवरषु कौतुकैन वर्षति हस्तम् ।। मन: पुनः एकस्यां सन्लक्या यदि पृच्छथ परमार्थम् ।। ८ । हिन्दीः-हाथी अपनी सू को केवल क्रीड़ा वश हादर ही अन्य वृक्षों पर पड़ता है। यदि तुम सत्य बात ही पूछते हो तो यही है कि उस हाथी का मन ता वास्तव में सिर्फ एक 'पल्ल की' नामक चुक्ष पर ही श्राकर्षित होता है। इस छन में संस्कृत -पर कौतुके।' के स्थान पर अपभ्रश भाषा में कोहण' लिखा गया है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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