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________________ 100+ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # *************************** सुपि ।। ३-११७ ॥ [ १६६ ] अस्मदः सुपि परं श्रम्हादय अत्वार आदेशा भवन्ति || प्रदेषु । ममेसु । महेतु । roha | एत्व विकल्पमते तु । अम्हसु । ममसु । महसु । मन्मसु । अम्हस्यात्व मपीत्यन्यः । म्हासु || 4 अर्थ :- संस्कृत मर्धनाम शब्द 'अम्मद' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोष प्रतिष्य प्रत्यय सुप सु के समान ही प्राकृत में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संयोजना होने पर संस्कृत शब्द 'परम' के स्थान पर प्राकृत में चार अंग रूप की आदेश प्राप्ति हुआ करती है एवं तत्पश्चात् सप्तमी बहुवचनार्थ में उन आदेश प्राप्त चारों अंग रूपों में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होती है। एक विधानानुसार 'अस्मद्' के प्राकृतीय प्राप्तव्य चार अंगरूप इस प्रकार हैं: - अस्मद् = श्रम्ह, मम, मह और मक । नगरूपों की प्रत्यय सहित स्थिति इस प्रकार है: - मासु = श्रहेषु ममेसु महेलु और म अर्थात हम सभी पर अथवा हमारे पर; हम सभी में अथवा हमारे में । किन्ही किन्हीं की मान्यता है कि सप्तमी बहुवचनार्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संप्राप्ति होने पर एक चारों प्राप्तांगों में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है । सहनुसार एक श्रादेश प्राप्त वार्गे अंगों में 'सु' प्रत्यय प्राप्त होने पर इस प्रकार रूप स्थिति बनती हैं: म्हसु मम महसु और ससु । इनमें अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्तव्य छ का अभाव प्रदर्शिन किया गया है । कोई एक ऐसा भी मानता है कि संस्कृत शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर सर्वप्रथम आदेशप्राप्तांग 'अम्ह' में 'ख' प्रत्यक्ष को संगति होने पर 'अम्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती है। इसके मत से 'अम्' में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर सप्तमी बहुवचनार्थ में 'हा' रूप की भी संप्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अस्मासु के प्राकृत में उक्त नव रूप होते हैं। अस्मासु' संस्कृत मप्तमी बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'श्रम्हे, मे, महेतु म हसु ममधु, महसू, मक्कसु और अम्हासु होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-११७ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सुप' प्रत्यय की संयोजना होने पर संस्कृत मूल शब्द 'श्रमदू' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अम्ह, मम, मह और अंगों की संभाप्ति; तत्पश्चात सूत्र - संख्य ३-१५ से प्राप्तांगों के अंत में स्थित अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथम चार रूप में आगे सप्तमी बहुवचन बोलक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्तिः ३-११७ की वृत्ति से पांचवे रूप से प्रश्वम्भ करके आप तक में उक्त अन्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित करके अन्त्य स्वर 'अ' की श्रवा पूर्व स्त्रिते का ही सद्भाव, जबकि नवर्षे रूप में ३-११० को वृत्ति से प्राप्त मग 'ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की शप्ति और सूत्र संख्या ४-४४८ से
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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