SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 10+♠♠♠♠♠ 46004 है। उपरोक्त 'आत्मन = अप्पा' के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि 'अन' अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन' श्रवयव के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति होकर वे शब्द अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की श्रेणी के अन्तगत हो जाते हैं । किन्तु यह स्थिति वैकल्पिक पवाली है; तदनुसार 'आण' आदेश को प्राप्ति के अभाव में 'अन' श्रमत वाले शब्दों की स्थिति सूत्र- संख्या ३-४६ से लगाकर ३-५५ तक के विधि-विधानानुसार निर्मित होती हुई 'राज' शब्द के समान संचारित होती है। इस विधि-विधान को 'आत्मन = अप्पा' के उदाहरण से नीचे स्पष्ट किया जा रहा है: [ १०३ प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरण: श्रात्मा = अप्पा और अप्पो । संबोधन के एकवचन का उदाहरण: - हे आत्मन हे अप्पा ! और हे अप्प ! प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का उदाहरणः - श्रात्मानः तिष्ठन्ति अप्पाणो चिट्ठन्ति इस उदाहरण में 'श्रात्मन अल' अंग में सूत्रसंख्या ३.५० के अनुसार प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का उदाहरणः - आत्मनः पश्य = अप्पाणो पेच्छ अर्थात अपने आपको (आत्मगुणों को) देखी । इस उदाहरण में भी 'श्रात्मन = अप' अंग में सूत्र- संख्या ३-५० के अनुसार ही द्वितीया के बहुवचन में 'खो' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है । अन्य विभक्तियों में 'श्रात्मन = अप्प' के रूप इस प्रकार होते हैं:-- विभक्ति नाम एकवचन तृतीया --- ( श्रात्मना = ) अपर्णा । पंचमी - (आत्मनः = ) अप्पा, अप्पा. 918, cafe, carsgeät, scar i षष्ठी - (आत्मनः धनम् = ) अपणो धणं । सप्तमी - ( श्रात्मनि = ) अ + बहुवचन ( आत्मभिः =) अप्पेहि । (आत्मभ्यः) अप्पा सुन्तो हस्यादि । ( श्रात्मनाम् =) अप्पणं । ( श्रात्मसु =) अप्पे | उपरोक्त उदाहरणों से यह प्रमाणित होता है कि अन् अन्त वाले पुल्लिंग शब्दों में 'अन' अवमत्र के स्थान पर 'आप' आदेश की प्राप्ति के प्रभाव में विभक्ति (बोध) कार्य की प्रवृत्ति सूत्रसंख्या ३-४६ से प्रारम्भ करके सूत्र संख्या ३-५५ तक में वर्णित विधि-विधान के अनुसार होती है; इसी सिद्धान्त को इसी सूत्र में 'राजवत्' शब्द का सूत्र रूप से उल्लेख करके प्रदर्शित किया गया है। इसी प्रकार से 'राजन' शब्द भी पुल्लिंग होता हुआ 'अन्' अन्त वाला है; तदनुसार सूत्र संख्या ३-५६ के विधान से 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में बैकल्पिक रूप से 'आण' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है और ऐसा होने पर 'राजन रायाण' रूप अकारान्त हो जाता है; तथा अकारान्त होने पर इसकी विभक्तिबोधक कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार होती है। बैकल्पिक पक्ष होने से जब सूत्र- संख्या ३-५६ के अनुसार प्राप्तब्य 'अन्' के स्थान पर 'प्राण'
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy