SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ ] * प्राकृत व्याकरण * Ketorikisssssksvintri .emendmmendererseasternments उत्तर: यदि इत्व इकारान्त और लकारान्त शब्दों में 'मिस्' भ्यस् और सुप'प्रत्ययों के अनिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति हुई हो तो इन शब्दों के अन्त्य ह्रस्व स्वर को दार्घता की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-गिरिम अथवा तरुम् पश्य-गिरि अथवा तरु पच्छ । इन उदाहरणों में द्वितीया-विभक्ति के एक वचन का 'म् प्रत्यय प्राप्त हुश्रा और 'मिस , भ्यम् अथवा सुप' प्रत्ययों का अभाव है; तदनुसार इनमें इस्व स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर की प्राप्ति भा नहीं हुई है । यो अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिये। गिरिभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिं होता है। इनमें सूत्रमंख्या ३-६६ से मूल गिरि शब्दान्त (द्वितीय हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीघ ई' की प्राप्ति और ३.७ से सृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय भिस के स्थान पर प्राकृत में हि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गिरीहि रूप सिद्ध हो जाता है । बुद्धिभिः-- संस्कृत तृतीयान्त बहु वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से ओर ३-७ से 'गिरीहिं' के समान हो सानिका की प्राप्ति होकर बुधिहि रूप सिद्ध हो जाता है ! दधिभि:--संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहीहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष-सानिक सत्र-संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर दहीहिं रूप सिद्ध हो जाता है । तहभिा-संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरूहि होता है । इसमें सूत्रसंख्या ३-१६ से और ३-७ से 'गिरीहि' के समान ही साधनिक की प्राप्ति होकर तरूहि रूप सिद्ध हो जाता है। धेनुभिः-संस्कृन तृतीयान्त बहु बचन रूप है । इसका प्राकृत रूप घेणूहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-० से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधानका सूत्र संख्या ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरीहिं' के समान ही होकर भेहि रूप सिद्ध हो जाता है। मधुभिः-संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है । इस को प्राकृत रूप महूहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिको ३-१६ एवं ३-७ से 'गिरोहि' के समान ही होकर महहि रूप सिद्ध हो जाता है। कार्य रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११७ में की गई है। गिरिभ्यः-संस्कृत पंचम्यन्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रुप गिरीश्री, गिरीहिन्ती और गिरीसुन्तो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल 'गिरि शब्दशन्त्य हम्ब स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-६ से पंचमी विभक्ति चोध प्रत्यय 'ओ, हिन्सी. और सुन्तो'की क्रमिक-प्राप्ति होफर क्रम से गिरीभो, गिरीहिन्ती एवं गिरीसुन्तो रूपों की सिद्धि हो जाती है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy