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________________ * प्राकृत व्याकरण * •oweredressertersnessetorwarroriwwwerstoornwww.sex.somooves दुख्ना संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप दहिणो होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.१८७ से मूल शब्द 'वधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३.२३ से प्राप्त रूप 'दहि' में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वधान में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में प्यो' श्रादेश-प्राप्ति होकर दहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। मधुनः संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप महुणो होता है। इसमें सूत्र. संख्या १-१८७ से '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त रूप 'महुँ' में संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'मि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'यो' आदेश--प्राप्ति होकर महुणो रूप सिद्ध हो जाता है। आगओ रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या १-१०९ में की गई है। विकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृन रूप विप्रारी होता है । इममें सूत्र-संख्या १-५७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय स' के स्थानीय रूप विमर्ग के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरो रूप भिद्ध हो जाता है। गिरेः संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप गिरीश्रो, गिरीउ और गिरीहिन्तो होते हैं। इनमे सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'गिरि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति और ३-८ से संस्कृतीच पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'इसि के स्थानीय रूप 'स' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दोश्री', 'दु' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाते है। तरा संस्कृत एक वचनान्त पंचम्यन्त रूप है । इसके प्राक्कन रूप तरूओ, तकउ और तरूहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'तरु' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर '' को दीर्घ स्वर 'अ' की प्राप्ति और ३.८ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्रायत में क्रम से दो-यो'; 'दु-उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप तरूओ, तरूउ और तरूहिन्ती सिद्ध हो जाते हैं। । गिरेः संस्कृत एक वचनान्त षष्ठ्यन्त रूप है । इसके प्राकृत रूप गिरिणो और गिरिस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र-संख्या ३-२३ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' श्रादेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप गिरिणो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( गिरेः= ) गिरिस्म में सूत्र-संख्या ३.१० से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय इस के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिस्स सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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