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________________ ६४ ] * प्राकृत व्याकरण * कहा गया है ? उत्तर:- चूँकि प्राकृत-साहित्य में अथवा प्राकृत भाषा में इन आकारान्त सर्वनामों में 'सि'; 'अम्' और 'आम्' प्रत्ययों के प्राप्त होने पर अन्त्य 'आ' की स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहती है; श्रतएव ऐसा ही विधान करना पड़ा है कि प्रथमा विभक्ति के एक वचन में, द्वितीया विभक्ति के एक वचन में और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में इन आकारान्त सर्वनामों के अन्त्य 'श्री' को 'ई' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से भी नही होती है। उदाहरण इस प्रकार है: -का का; कामूकं और कासामू=काण; या=जा; याम् =जं और यासाम् = जाण; सा=सा; ताम = तं और तासाम्-ताण ॥ J संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है; इसके प्राकृत रूप की और और काम होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' में स्थित अन्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप; ३-३१ और ३-३३ से शेष रूप 'कि' में वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'स्त्रीलिंग अर्थक-प्रत्यय' 'की' और 'आप्=आ' की प्राप्तिः प्राप्त प्रत्यय 'श्री' अथवा 'आप' के पूर्वस्थ 'कि' में स्थित '' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'को' और 'का' रूप की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथम एवं द्वितीया विभक्ति के बहु बचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस शस के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीओ और फाभी सिद्ध हो जाते हैं। कया संस्कृत तृतीयान्त एक वचन स्त्रीलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कीए और काए होते हैं । इनमें 'को' और 'का' तक रूप की साधनिका उपरोक्त रीति अनुसार और ३-२६ से तृतीया श्रिमति के एक वचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय टा' के स्थान पर माकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप कीए और काए सिद्ध हो जाते हैं। फासु, संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन स्त्रोलिंग सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप कीलु और कासु होते हैं । इनमें 'की' और 'का' तक रूप की साधनिका उपरोक्त रोति अनुसार और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहु वचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर शकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप की सु और कासु सिद्ध हो जाते हैं । याः संस्कृत स्त्रीलिंग प्रथमा द्वितीया बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जीआ और जाओ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११ से भूल संस्कृत शब्द 'यस्' में स्थित अन्त्य हलन्त 'सू' का लोप; १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-३१ और ३-३३ से 'स्त्रोलिंग अर्थक-प्रत्यय' 'को' और 'आप' को कम से प्राप्ति; तदनुसार ङी' और 'आ' प्रत्यय प्राप्त होने पर प्राप्त प्राकृत रूप 'ज' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप होकर क्रम से 'जी' और 'जा' रूप की प्राप्ति एवं ३१७ से प्रथम तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जस्-शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप जीओ और जाभी सिद्ध हो जाते हैं ।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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