SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ ] 444 * प्राकृत व्याकरण * ********** णि' प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती हैं। यही तात्पर्य 'जस् शस्' से प्रकट होता है और इसीलिये इन्हें सूत्र के प्रारम्भ में स्थान दिया गया है। जैसे:- सुखं सुहं । इस उदाहरण में 'नपुंसक लिंगस्व' का सद्भाव है; परन्तु ऐसा होने पर भी इसमें प्रथमा अथवा द्वितायाविभक्ति के बहुवचन का प्रभाव है और ऐसी 'अभावात्मक स्थिति' होने से हो 'जस् शस्' के स्थानीय प्रत्ययों का -याने 'इ इ औणि' प्रत्ययों का भी इस उदहरण में अभाव है । यों यह उदाहरण प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के एक वचन का है; इस प्रकार 'सुखम्-सुह' पद नपुंसक लिंग वाला है; पथमा अथवा द्वितीया विभक्ति वाला है; परन्तु एक वचन वाला होने से इसमें 'इ', इ और ण' प्रत्ययों में से किसी भी प्रत्यय की संयोजना नहीं हो सकती हैं | यहां रहस्य--पूरा विशेषता जस्-शस' को जानना ! यानि संस्कृत प्रथमा--द्वितीयान्त के बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाई होता है। इसमें सूत्र संख्या - १-२४५ ले 'यू' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रस्यय 'जस' अथवा 'शम्' के नपुंसक लिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय' नि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय का पति होकर जाएँ रूप सिद्ध हो जाता है । वचनानि संस्कृत प्रथमा द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप यणाएँ होता है इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप: १-१८० से लोप हुए 'च के पश्चात शेष रहे हुए '' के स्थान पर 'य' को प्रमि; १२२८ से प्रथम 'म' के स्थान पर 'ण्' को प्राप्ति और ३.२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'जस्' अथवा शस्' के नपुंसक लिंगात्मक स्थानीय प्रत्यय 'नि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दस्य हुम्ब स्वर 'अ' को दीर्घ 'आ' की प्राप्ति करते हुए 'हूँ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणा रूप सिद्ध हो जाता है । अस्माकम, संस्कृत षष्ठयन्त बहुवचनात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हे होता है । इसमें सूत्र--संख्या ३-११४ से संस्कृन सर्वनाम 'श्रस्मद्' में पी विभक्ति के बहुवचन में 'आम्' प्रत्यय की प्रप्ति होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में 'आम्हें' रूप की आदेश प्राप्ति होकर अम्हे रूप सिद्ध हो जाता है । उमन्ति संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका इनमें सूत्र संख्या २७ से प्रथम हलन्त '' व्यञ्जनका लोप रहे हुए 'म्' को 'म' को प्राप्त ४२१६ से प्राप्त हलन्त धातु विकररण प्रत्यय 'व्य' को प्राप्ति और ३- १४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन मे 'ति' प्रत्यया की प्राप्ति होकर प्राकृत रूपम्मीलति सिद्ध हो जाता है। प्राकृत रूप उम्मीलन्ति होता है । से लाए हुए 'न्' के पश्चात् शेष 'उम्माल' में स्थित अन्त्य 'लू' में जानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पङ्कयाह होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७० से "" का लोप; १-१५० से लोप हुए 'लू' के पधात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति; और
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy