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________________ * प्राकृत व्याकरण [ २५५ ] 1000000000000000000000000000000かからないので अर्थ:-संस्कृत में 'श्रम' - हो ना एनी एक धातु है जिसको वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के एक धचन में मस्कतीग प्रायजा प्रत्यय 'सि' की मंगोजना होने पर 'श्रमि' रूप बनता है। इस संस्कृतीय प्राप्त रूप 'अमि' =(तू है %) के स्यान पर प्राकृत में उक वर्तमान काल के द्वितीय पुरुप के एक वचन में सूत्रसंख्या ३.१४० से मानव्य प्रत्यय 'सि' और 'से' में से सब 'सि' प्रत्यय की योजना हो रही हो तो उस समय में 'अम + सि' में से प्रस्' का लोप होकर शेष प्राप्त रूप 'सि' ही उक्त 'असि' कप के स्थान पर प्राकृन में प्रयुक्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-निष्ठुगे यन असि-निदो जं सि = (अरे). तू निष्ठुर है। यहां पर संस्कृनीय धातु 'सि' के स्थान पर प्राशन में 'सि' रूप को श्रादेश-प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। प्रमः-मून सूत्र में 'सि' ऐ.पा निश्चयात्मक उल्लेख क्यों किया गया है ? - उत्तरः--तमान काल के दिनोय पुरुष के एकवचन में सूप-संख्या ३.१४० के अनुसार प्राकृतीय धातुओं में 'सि' और 'से' या दो प्रकार के प्रत्ययों की संयोजना होती है । तदनुसार जब 'अस्' धातु में 'सि' प्रणय को संयोजना होगी; तभी 'अम् + प्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'सि' रूप की आयश-मामि होगी; अन्यथा नहीं। यदि 'अम्' धातु में उक्त 'सि' प्रत्यय की संयोजना नहीं करके 'से' प्रत्यय को संयोजना का जायगी तो उस समय में सूत्र-संख्या ३-१४८ के अनुसार संस्कृत रूप 'अस + मि'प्राकृत रूप 'अस+ से' के स्थान पर प्राकृत में 'अस्थि' रूप को आदेश प्राप्ति होगी । यो 'सि' से सम्बन्धित विशेषता को प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सि' का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:--स्वमसि अस्थि तुमः तू है । यहाँ पर 'आम' के स्थान पर 'मि' रूप की आदेश प्राप्त नहीं करके 'अस्थि' रूप का प्रदर्शन किया गया है। इसका कारण प्रायनीय प्रत्यय 'सि' का प्रयोग नहीं किया जाकर 'से' का प्रयोग किया जाना ही है । यो अन्यत्र भशन में रखना चाहिये । 'निदरों रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.२१४ में की गई है। 'अ (सर्वनाम) रूप की सिद्वि सूत्र संख्या १४ में की गई है। अलि सांकृत का वर्तमानकाल का द्वितीय पुरुष का एकवचनान्त परस्मैपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'सि' होना है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१४६ से मुम्पूर्ण संस्कृतीयपर 'असि' के स्थान पर प्राकृत में वतमान काल के द्वनीय पुरुष के एक वचनार्थ में सूत्र-संख्या ३-१४० के आदेशानुसार 'सि' और 'से' प्रत्ययों में से 'सि' प्रत्यय की 'अस्' धातु में संयोजना करने पर प्राकृत में केवल 'सि' मादेश प्राग्नि होकर 'सि' रूप प्रिय हो जाता है। आरी संस्कृत का वर्तमानकाल का द्विनीय पुरुष का एकवचनान्त अकर्मक क्रियापद कप है। इसका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.१४८ से सम्पूर्ण संस्कृतीय क्रियापद 'सि' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३.१४० के निर्देशानुमार एवं ३-१४३ की धृत्ति के आधारानुसार प्राकतीय प्रत्यय 'से' को संयोजना होने पर अस्थि रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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