SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [५४२] * प्राकृत व्याकरण 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'इदम् और किम्' सर्वनामों में परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु= अत्' की प्राप्ति होकर 'इतना और कितना' अर्थ में कम से 'इयत और कियत' पदों का निर्माण होता है; इन बने हुए 'इयत और कियत' पदों के अन्त्य अवयत्र रुप 'यत' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकला से वित' पूर्वक 'एबद्ध' अवयव रूप की आदेश माप्ति हाता है। 'हित् पूर्वक' कहने का रहस्य यह है कि इयत और कियत पदों में से अन्त्य अवयव रूप 'यत्' का लोप हो जाने के पश्चात शेष रहे हुए शब्दांश 'इ और कि' में स्थित 'इ' स्वर का भो लोप होकर आदेश प्राप्त एवढ' शब्दांश का संधि होकर कम से ('इयत्' के स्थान पर) 'एबल' की और ( कियत्' के स्थान पर 'केवढ' को आदेशप्राप्ति हो जाती है। जैसे:- इयत अन्तर-एबडु अन्तरू - इतना फर्क = इतना भेद । कियत अन्तरं 3 केज अन्तर:-किताना ? कितना भेट ? लैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४-४३५ से "इयत्' के स्थान पर तिल' की प्राप्ति होगी और 'कियत' के स्थान पर 'केत्तल' रूप भी होगा। इयत कियत सुरू = एत्तुलु कत्तल सुई इतना कितना सुख ॥ ४-४०८ ।। परस्परस्यादिरः ॥ ४-४०६ ॥ अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । ते मुग्गडा हराविना जे परिविट्ठा ताहं ।। अवरोप्यरू जोअन्ताह सामिउ गन्जिउ जाहं ।। १ ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले विशेषण रूप 'परस्पर' में स्थित प्रादि 'पकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अकार' को आदेश प्राप्ति हो जाता है । जैसे:-परस्परस्य = अवरापरहु - आपस का || गाथा का रूपान्तर संस्कृत भाषा में और हिन्दी भाषा में क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत:-ते मोगलाः दारिताः, ये परिविष्टाः तेषाम् ।। परस्परं युध्यमानानां स्वामी पोडितः येषाम् ॥१॥ हिन्दी:-परस्पर में युद्ध करने वाले जिन मुगलों का स्वामी पीड़िन या-दुःखी था; और इसलिये उनमें से जो बच गये थे, वे मुगल (म्लेच्छ जाति के सैनिक) हरा दिय गये उन्हें पराजित कर दिया गया । इस गाथा में परस्पर' के स्थान पर 'अवरोप्पम पद का उपयोग करते हुए श्रादि पकार के स्थान पर प्रकार की प्राप्रि प्रदर्शित की गई है. ।। ४.४०६ ॥ कादि-स्थैदोतोरुच्चार-लाघवम् ॥४-४१०॥ अपभ्रशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोः ए ओ हत्येलयोरुच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति ।। सुघे चिन्तिज्जड माणु ॥ (४-३६६)तसु दउँ कलि-जुगि दुल्लह हो (४-३३८) ॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy