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________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * workowarimarswermeasootrawadiscrimoorrentoreesomeo.0000 संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्न प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'श्रो' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर कम से प्रथम दी रूप सही और सहीओ सिद्ध हो जाते हैं। मूलाय रूप-(सरन्यः और सखा:-) सही में सूत्र संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा-द्वितीया विभक्ति कंबहुवचन में प्राप्त प्रत्यय जम् --शज' का प्राकृत में लोप होकर तृतीय रूप सही सिद्ध हो जाता है। धेनवः और धन संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप है। इन दोनों के सम्मिलित कृत रुप धेणूत, घेणू श्री और घेणू होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत रूप 'धेतु" में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या ३.२७से संस्कृतीय प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य द्वस्व स्वर 'ड' को दीर्घ म्बर 'क' की प्राप्ति कराते हुए वैकल्पिक रूप से और क्रम से 'उ' तथा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर कम से प्रथम दो रूप घेणूड और घेणूभी सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(धेनवः और धेनूः) धणू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा-विभक्ति के बहुपचन में प्राप्त प्रत्यय 'जम-शस' का प्राकृत में लोप और ३-१२ से तथा ३-१८ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्-शत के कारण से अन्त्य हुस्व घर 'ख' को दोध-स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप घेणू सिद्ध हो जाता है। वध्वः और वः संस्कृन प्रथमान्त-द्वितीयान्त बहुवचन के क्रमिक रूप हैं । इन दोनों के (सम्मिलित) प्राकृत रूप वहुउ, वह ओ और बहू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८० से मूल संस्कृत-रूप 'वधू' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'इ.' की प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम दो रूप में सून संख्या ३-२७ से संस्कृतीय प्रथमा--द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' के स्थानीय रूप 'अस' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से और क्रम से '' सश्रा 'ओ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति क्षेकर क्रम से प्रथम दो रूप पहूर और पहभो सिद्ध हो जाते है। . तृतीया रूप-(वध्वः और वधूः-) वहू में सूत्र-संख्या ३-४ से संस्कृतीय प्रथमा--द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यत्र 'जस-शस्' का प्राकृत में लरेप होकर तृतीया रूप पहू सिद्ध हो जाता है। पच्छा रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या ३-४ में की गई है। मालायाः संस्कृत षष्ठपन्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप मालाए होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-२५ से संस्कृतीय षष्ठी विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रत्यय 'स' के स्थानीय स्प'असभ्या के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाए सिद्ध हो जाता है। कयं रूप की सिद्धि सूत्र--संख्या १-११ में की गई है।। ३-२७॥
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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