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________________ . प्राकृत व्याकरण * roorksroor.orro++0000000000rooterstoortoonsootomorr00000000000om होस्स-मैं होऊँगा; चूँ कि यह विधान बैकल्पिक-स्थिति वाला है अतएव पक्षान्तर में होहिमि, होस्सामि और होहामि' रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। अन्य उदाहरण इस प्रकार है:-हसिस्यामि अथवा हमितास्मि हसिस्स-मैं हँसूगा । कीयिष्यामि-कित्तइस पक्षान्तर में किन हामि = मैं मोतन करूँगा; इत्यादि । इस प्रकार से वैकल्पिक-स्थिति का सद्भाव भविष्यत् काल के अर्थ में नोय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये । भविश्यामि अथवा भषितास्मि संस्कृत के क्रमश: भविष्यत-काल-वाचक लट् लकार और लुद् लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप) से होस, होहिमि, होस्लामि और होहामि होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ५-६. से मूल संस्कृत-धातु 'भू-भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की श्रादेश-प्राप्ति; सत्पश्चात सर्व प्रथम रूप में ४-१६६ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत् काल के अर्थ में ततोय -पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कथित प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की भादेश-प्राप्ति होकर होरसं रू। सिद्ध हो जाता है । शेष रूप 'होहिमि, होस्सामि तथा होहामि' को सिख सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है। हासष्यामि अथवा हसितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्-काल-वाचक लद लकार और लुट लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनका प्राकृत-सप (ममान-रूप से) हसिस होता है। इसमें मूत्र-संख्या ३-१५४ से मूज प्राकृत-धातु 'हम' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर धागे भविष्यत् काल-वाचक प्रत्यय का सदभाव होने के कारण से 'ई की प्राप्ति, तत्पश्चात प्राप्तांग 'हसि' में मूत्रसंख्या ३.६६ से भविष्यात-काल साथ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कपिल प्राध्य प्राकृत प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की भाषेश-प्राप्ति होकर हाससं रूप सिद्ध हो जाता है। कीर्तयिष्यामि संस्कृत का भविष्यात काल-याचक लूद लकार का तृतीय पुरुष के एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप किसइस्स और कित्तहिगि होते हैं। इनमें सूत्र-सख्या २-५६ से 'तं में स्थित रेफ रूप र' का लोप; २६६सं लोप हुए रंफ रूप र' के पश्चात शेष रहे हुए 'त' को बित्व 'स' की माप्ति; १.८४ से भादि वर्ण 'की' में स्थित्त वाले स्वर 'ई' के स्थान पर आगे प्राप्त संयुक्त व्यञ्जन 'च' का सभाष होने के कारण से हरष स्वर 'इ' की प्राति; ...७७ से 'य' षर्ण में स्थित 'व्यसन का लोप; इस प्रकार संस्कृत-अंग प 'कोरीय' से प्राकृत में प्राप्तांग कित्ता' में ३-१६६ से भविष्यत-काल के अर्थ में वृतीच पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तम प्रत्यय 'यामि' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्रादेश-प्राप्ति होकर कित्तस्सं रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र संख्या ३.१६६ से प्राकृत में प्रथम रूप के समान ही प्राRI'किचाइमें भविष्यत कास सूचक प्राप्तभ्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३.१४१ से भविष्यत काल के अर्थ में प्राप्तांग किचदहि' में
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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