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________________ । ५६४ * प्राकृत व्याकरण * ( ग्रन्थ-कर्ता द्वारा निर्मित प्रशस्ति ) पासीविशां पतिरमुद्र चतुः समुद्र मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमयाहुदण्डः ।। श्री मूलराज इति दुर्धर वैरि कम्भि || कगठीरवः शुचि चुलुक्य कुलावतंसः ॥१॥ तस्यान्वयं समजनि प्रबल-प्रताप तिग्मद्यतिः वित्तिपति जयसिंहदेयः । येन स्व-वंश-सवितयं परं सुधांशी, श्री सिद्धराज इतिनाम निर्ज व्यलेखि ॥२॥ सम्यग निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान, जित्योपभुज्य च भूवं चतुरब्धि काञ्चीम् । विद्या चतुष्टय विनीत मति जितात्मा, काष्ठामवाप पुरुषार्थ चतुष्टये यः ॥ ३ ।। तेनातिविस्तृत दुरागम विश्कीर्ण शब्दानुशासन-समूह कदर्थितेन । अभ्यर्थितो निरवमं विधिवत व्यवत्त, शब्दानुशासनमिदं मुनि हेमचन्द्रः ।। ४ ॥ प्रशस्ति-भावार्थ:--चौलुक्य वंश में प्रधान प्रताको मूलराज नाम वाला प्रख्यात नपनि हुआ है। इमने अपने बाहुबल के आधार पर इम पृथ्वी पर राज्य शासन चलाया। इसी वश में महान तेजस्वी जयसिहदेव नामक राजा हुआ है: जाकि "सिद्धराज' उपाधि से सुशोभित था। यह अपने सूर्य-सम कांति बाले घंश में चन्द्रमा के ममान सौम्य, शान्त और विशिष्ट प्रभावबालो नर-राज हुअा है। इस चतुर मिद्धराज जयसिंह ने राजनीति सम्बन्धो चारों उपायों का-साम, दाम, दण्ड और भद' का व्यवस्थित रूप से उपयोग किया और इस धरती पर समुद्रान्त नक विजय प्राप्त करके राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया । चागें विद्याओं द्वारा अपनो शुद्ध बुद्धि को विनय-शोल बनाई और अन्त में धागें पुरुषार्थों की साधना करके यह जितात्मा देव बना।
SR No.090367
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages678
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size18 MB
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